Wednesday, August 4, 2010

राष्ट्रीय नेतृत्व का संकट- राम शिव मूर्ति यादव















बड़े अफ़सोस की बात है कि राष्ट्र आज जिस संकट की घड़ी से गुज़र रहा है, उसके प्रति न तो राष्ट्र का नेतृत्व, न साहित्यकार, न मीडिया और न ही बुद्धिजीवी संवेदनशील है। लगता है सभी संवेदनहीन हो चुके हैं, शून्य हो चुके हैं। देश में बड़ा से बड़ा हादसा हो जाता है, क्षण भर के लिये रेडियो व टी० वी० अपनी जानी-पहचानी आवाज़ में उसे खबरों का रूप दे देते हैं, अखबार वाले अपने पन्ने रंग देते हैं, फिर आया-गया हो जाता है। लोगबाग भूल जाते हैं, कारण कि इस देश की जनता का भुलक्कड़पन पुराना है। यद्यपि कि इसमें जनता का दोष नहीं, बल्कि दोष तो राष्ट्रीय कर्णधारों का है, जिन्होंने समाज का माहौल और संस्कार ही ऐसा निर्मित कर दिया है कि इसके सिवा कुछ नहीं हो सकता।


दरअसल बात यह है कि राष्ट्र के शिखर नेतृत्व की नीयत साफ़ नहीं है या यूँ कहिये कि आज का नेतृत्व राष्ट्र के प्रति समर्पित न होकर बल्कि राष्ट्र को ही अपने प्रति समर्पित मान लेता है। यही कारण है कि नेतृत्व पर आया संकट राष्ट्र का संकट मान लिया जाता है एवं नेतृत्व का हित राष्ट्र का हित मान लिया जाता है। ऐसे में जब देश के सभी बड़े राजनैतिक दल खुद ही नेतृत्व को लेकर संकट में हैं, उनसे सक्षम नेतृत्व की आशा करना ही व्यर्थ है। देश पर सबसे लम्बे समय तक शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी का हाल देखें तो स्वयं महात्मा गाँधी ने आजादी पश्चात कांग्रेस को भंग करने की बात कही थी क्योंकि उन्हें आज़ादी के बाद की भारत की तस्वीर दिखने लगी थी। यह अनायास ही नहीं है कि कांग्रेस मात्र एक परिवार विशेष के व्यक्तियों के भरोसे रह गई है और अपनी स्थाई नियति मानकर उनसे ही किसी करिश्मे की आशा करती है। कभी स्वतन्त्रता आन्दोलन का पर्याय रहे कांग्रेस की यह मनोदशा स्वयं में बहुत कुछ स्पष्ट कर देती है। उत्तर प्रदेश जैसे सशक्त राज्य में अपनी ज़मीन खिसकने के बाद जिस प्रकार कांग्रेस छटपटा रही है, उसे समझा जा सकता है। युवराज के रूप में प्रचारित किये जा रहे राहुल गाँधी बुन्देलखण्ड के एक दलित परिवार में रात गुज़ार कर इस बात की आसानी से घोषणा करते हैं कि ऊपर से चले एक रूपये में से मात्र पाँच पैसा ही इन इलाको में पहुँचता है, पर इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है बताना भूल जाते हैं। इसी प्रकार भारतीय जनता पार्टी तो सदैव मुखौटों की राजनीति से ही ग्रस्त दिखती है। कभी अयोध्या तो कभी गुजरात को हिन्दुत्व की प्रयोगशाला बनाने वाली भाजपा के कर्णधार सत्ता में आते ही गठबन्धन की आड़ में अपने मूल मुद्दों को दरकिनार कर देते हैं। ऐसे ही तमाम अन्य राजनैतिक दल क्षेत्रवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद जैसी भावनाओं के सहारे येन-केन-प्रकरेण सत्ता हासिल करते हैं और विकास की बातों को पीछे छोड़ देते हैं। निश्चिततः इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता और इसी का नतीजा है कि आज अराजकता, आतंकवाद, अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार, सामाजिक असुरक्षा का दूषित महौल पूरे राष्ट्र में व्याप्त है।


इस बिगड़े माहौल के लिये राजनैतिक नेतृत्व के साथ-साथ पूँजीपति वर्ग, धर्माचार्य व मीडिया भी अपनी जिम्मेदारी से आँख नहीं चुरा सकते। ये आये दिन देश की जनता को राष्ट्रीयता, ईमानदारी, मितव्ययिता, अनुशासन व कर्मठता का पाठ पढ़ाते हैं पर कभी अपने गिरेबान में झाँकने की कोशिश नहीं करते। लोकतंत्र का चतुर्थ स्तम्भ कहा जाने वाला मीडिया इन कथित कर्णधारों द्वारा कही गई एक-एक बात को ब्रेकिंग न्यूज बनाकर देश की जनता को उबाता रहता है। जनता की आवाज उठाने की बजाय मीडिया की प्राथमिकता सरकारी विभागों और कारपोरेट जगत से प्राप्त विज्ञापन हैं, जिन पर उनकी रोजी-रोटी टिकी हुई है। रोज प्रवचन देने वाले धर्माचार्य जनता को धर्म की चाशनी खिला रहे हैं और कर्मवाद की बजाय लोगों को कर्मकाण्ड की तरफ प्रेरित करके अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि या तो यह वर्ग यह समझकर प्रवचन झाड़ता है कि इस देश की जनता अनपढ़ और नासमझ है अथवा वे इस सूत्र पर काम कर रहे हैं कि किसी भी झूठ को बार-बार दोहराने से सच मान लिया जाएगा। वस्तुतः राजनैतिक दल, पूँजीपति या धर्माचार्य इन सबका निहित स्वार्थ एक है और दुनिया की सारी सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण इस  वर्ग के पास अभाव नामक चीज फटक भी नहीं सकती। यही कारण है कि यह वर्ग यथास्थितिवाद का पुरजोर पक्षधर है। इन्हें किसी भी प्रकार का परिवर्तन पसन्द नहीं - भले ही आम जनता अकाल, भुखमरी, महामारी से त्रस्त हो, देश का शिक्षित युवा वर्ग  रोजी-रोटी की तलाश में बुढ़ापे को पहुँच जाये, देश की आधी से अधिक जनता गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करती रहे, भोला-भाला देहाती नौकरशाही के जाल में पिसता रहे, किन्तु इस देश के नेताओं, पूँजीपतियों व धर्माचार्यों पर इसका कोई असर नहीं पड़ता। इनका सब कुछ तो ’सिंहासन‘, ‘गद्दी‘ व ’आसन‘ तक सीमित है। यही उनका राष्ट्र है, यही उनकी देशभक्ति है, बाकी चीजों के प्रति यह वर्ग अपनी संवेदनशीलता खो बैठा है।


आगे :-यहाँ यहाँ यहाँ ...


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