Wednesday, January 26, 2011
Friday, January 21, 2011
वानर से नर बनने में श्रम की भूमिका-फ्रेडरिक एंगेल्स
फ्रेडरिक एंगेल्स |
मनुष्य के हाथ श्रम की उपज हैं।
अर्थशास्त्रियों का दावा है कि श्रम समस्त संपदा का स्रोत है। वास्तव में वह स्रोत है, लेकिन प्रकृति के बाद। वही इसे वह सामग्री प्रदान करती है जिसे श्रम संपदा में परिवर्तित करता है। पर वह इस से भी कहीं बड़ी चीज है। वह समूचे मानव-अस्तित्व की प्रथम मौलिक शर्त है, और इस हद तक प्रथम मौलिक शर्त है कि एक अर्थ में हमें यह कहना होगा कि स्वयं मानव का सृजन भी श्रम ने ही किया।
लाखों वर्ष पूर्व, पृथ्वी के इतिहास के भू-विज्ञानियों द्वारा तृतीय कहे जाने वाले महाकल्प की एक अवधि में, जिसे अभी ठीक निश्चित नहीं किया जा सकता है, पर जो संभवतः इस तृतीय महाकल्प का युगांत रहा होगा, कहीं ऊष्ण कटिबंध के किसी प्रदेश में -संभवत- एक विशाल महाद्वीप में जो अब हिंद महासागर में समा गया है -मानवाभ वानरों की विशेष रूप से अतिविकसित जाति रहा करती थी। डार्विन ने हमारे इन पूर्वजों का लगभग यथार्थ वर्णन किया है। उन का समूचा शरीर बालों से ढका रहता था, उन के दाढ़ी और नुकीले कान थे, और वे समूहों में पेड़ों पर रहा करते थे।
संभवतः उन की जीवन-विधि, जिस में पेड़ों पर चढ़ते समय हाथों और पावों की क्रिया भिन्न होती है, का ही यह तात्कालिक परिणाम था कि समतल भूमि पर चलते समय वे हाथों का सहारा कम लेने लगे और अधिकाधिक सीधे खड़े हो कर चलने लगे। वानर से नर में संक्रमण का यह निर्णायक पग था।
सभी वर्तमान मानवाभ वानर सीधे खड़े हो सकते हैं और पैरों के बल चल सकते हैं, पर तभी जब सख्त जरूरत हो, और बड़े भोंडे ढंग से ही। उन के चलने का स्वाभाविक ढंग आधा खड़े हो कर चलना है, और उस में हाथों का इस्तेमाल शामिल होता है। इन में से अधिकतर मुट्ठी की गिरह को जमीन पर रखते हैं, और पैरों को खींच कर शरीर को लम्बी बाहों के बीच से झुलाते हैं, जिस तरह लंगड़े लोग बैसाखी के सहारे चलते हैं। सामान्यतः वानरों में हम आज भी चौपायों की तरह चलने से ले कर पांवो पर चलने के बीच की सभी क्रमिक मंजिलें देख सकते हैं। पर उन में से किसी के लिए भी पावों के सहारे चलना एक आरज़ी तदबीर से ज्यादा कुछ नहीं है।
हमारे लोमश पूर्वजों में सीदी चाल के पहले नियम बन जाने और उस के बाद अपरिहार्य बन जाने का तात्पर्य यह है कि बीच के काल में हाथों के लिए लगातार नए नए काम निकलते गए होंगे। वानरों तक में हाथों और पांवो के उपयोग में एक विभाजन पाया जाता है। जैसा कि पहले ही उल्लेख किया जा चुका है, चढ़ने में हाथों का उपयोग पैरों से भिन्न ढंग से किया जाता है। जैसा कि निम्न जातीय स्तनधारी जीवों में आगे के पंजे के इस्तेमाल के बारे में देखा जाता है, हाथ प्रथमतः आहार संग्रह, तता ग्रहण के काम आते हैं। बहुत से वानर वृक्षों में अपने लिए डेरा बनाने के लिए हाथों का इस्तेमाल करते हैं अथवा चिंपाजी की तरह वर्षा-धूप से रक्षा के लिए तरुशाखाओं के बीच छत सी बना लेते हैं। दुश्मन से बचाव के लिए वे अपने हाथों से डण्डा पकड़ते हैं या दुश्मनों पर फलों अथवा पत्थरों की वर्षा करते हैं। बंदी अवस्था में वे मनुष्यों के अनुकरण से सीखी गई सरल क्रियाएँ अपने हाथों से करते हैं। लेकिन ठीक यहीं हम देखते हैं कि मानवाभ से मानवाभ वानरों के अविकसित हाथ और लाखों वर्षों के श्रम द्वारा अति परिनिष्पन्न मानव हाथ सैंकड़ों ऐसी क्रियाएँ संपन्न कर सकते हैं जिन का अनुकरण किसी भी वानर के हाथ नहीं कर सकते। किसी भी वानर के हाथ पत्थर की भोंडी छुरी भी आज तक नहीं गढ़ सके हैं।
अतः आरंभ में वे क्रियाएँ अत्यंत सरल रही होंगी, जिन के लिए हमारे पूर्वजों ने वानर से नर में संक्रमण के हजारों वर्षों में अपने हाथों को अनुकूलित करना धीरे-धीरे सीखा होगा। फिर भी निम्नतम प्राकृत मानव भी वे प्राकृत मानव भी जिन में हम अधिक पशुतुल्य अवस्था में प्रतिगमन तथा उस के साथ ही साथ शारीरिक अपह्रास का घटित होना मान ले सकते हैं, इन अंतर्वर्ती जीवों से कहीं श्रेष्ठ हैं। मानव हाथों द्वारा पत्थर की पहली छुरी बनाए जाने से पहले शायद एक ऐसी अवधि गुजरी होगी जिस की तुलना में ज्ञात ऐतिहासिक अवधि नगण्य सी लगती है। किन्तु निर्णयक पग उठाया जा चुका था। हाथ मुक्त हो गया था और अब से अधिकाधिक दक्षता एवं कुशलता प्राप्त कर सकता था। तथा इस प्रकार प्राप्त उच्चतर नमनीयता वंशागत हेती थी और पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ती जाती थी।
अतः हाथ केवल श्रमेन्द्रिय ही नहीं हैं, वह श्रम की उपज भी है। श्रम के द्वारा ही, नित नयी क्रियाओं के प्रति अनुकूलन के द्वारा ही, इस प्रकार उपार्जित पेशियों, स्नायुओं- और दीर्घतर अवधियों में हड्डियों-के विशेष विकास की वंशागतता के द्वारा ही, तथा इस वंशागत पटुता के नए, अधिकाधिक जटिल क्रियाओं मे नित पुनरावृत्त उपयोग के द्वारा ही मानव हाथ ने वह उच्च परिनिष्पन्नता प्राप्त की है जिस की बदौलत राफ़ायल की सी चित्रकारी, थोर्वाल्दसेन की सी मूर्तिकारी और पागनीनी का सा संगीत आविर्भूत हो सका।
.
मनुष्य के वाक् और मस्तिष्क का विकास
परन्तु हाथ अपने आप में ही अस्तित्वमान न था। वह तो एक पूरी अति जटिल शरीर-व्यवस्था का एक अंग मात्र था। और जिस चीज से हाथ लाभान्वित हुआ, उस से वह पूरा शरीर भी लाभान्वित हुआ जिस की हाथ खिदमत करता था। यह दो प्रकार से हुआ।
मानव हस्त |
पहली बात यह कि शरीर उस नियम के परिणामस्वरूप लाभान्वित हुआ जिसे डार्विन विकास के अंतःसंबंध का नियम कहते थे। इस नियम के अनुसार किसी जीव के अलग-अलग अंगों के विशेष रूप से उन से असंबद्ध अन्य अंगों के कतिपय रूपों के साथ आवश्यक तौर पर जुड़े हुए होते हैं। जैसे, उन सभी पशुओं में, जिन में कोशिका केंद्रकों के बिना लाल रक्त कोशिकाएँ होती हैं और जिन में सिर का पृष्ठ भाग दुहरी संधि (अस्थिकंद) के द्वारा प्रथम कशेरूक के साथ जुड़ा होता है, निरपवाद रूप में अपने बच्चों को स्तनपान कराने के लिए दुग्ध ग्रंथियाँ भी होती हैं। इसी तरह जिन स्तनधारी जीवों में अलग-अलग खुर पाया जाता है। कतिपय रूपों में परिवर्तन के साथ शरीर के अन्य भागों में भी परिवर्तन होते हैं, यद्यपि इस सह-संबंध की हम कोई व्याख्या नहीं कर सकते। नीली आँखों वाली बिल्कुल सफेद बिल्लियाँ सदा, प्रायः बहरी होती हैं। मानव हाथ के शनैः शनैः अधिकाधिक परिनिष्पन्न होने और उसी अनुपात में पैरों को सीधी चाल के लिए अनुकूलित होने की, इस अंतः सबंध के नियम की बदौलत, निस्संदिग्ध रुप से शरीर के अन्य भागों में प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई, पर इस क्रिया की अभी इतनी कम जाँच पड़ताल की गई है कि हम यहाँ तथ्य को सामान्य शब्दों में प्रस्तुत करने से अधिक कुछ नहीं कर सकते।
इस से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है शेष शरीर पर हाथ के विकास की प्रत्यक्ष दृश्यमान प्रतिक्रिया। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, हमारे पूर्वज, मानवाभ वानर, यूथचारी थे। प्रकट है कि सब से अधिक सामाजिक पशु-मनुष्य-का व्युत्पत्ति संबंध किन्हीं अयूथचारी निकटतम पूर्वजों से स्थापित करने की चेष्टा असम्भव है। हात के विकास के साथ, श्रम के साथ आरंभ होने वाली प्रकृति पर विजय ने प्रत्येक अग्रगति के साथ मानव के क्षितिज को व्यापक बनाया। मनुष्य को प्राकृतिक वस्तुओं के नए नए और अब तक अज्ञात गुणधर्मों का लगातार पता लगता जा रहा था। दूसरी ओर, श्रम के विकास ने पारस्परिक सहायता, सम्मिलित कार्यकलाप के उदाहरणों को बढ़ा कर और प्रत्येक व्यक्ति के लिए इस सम्मिलित कार्य कलाप की लाभप्रदता स्पष्ट कर के समाज के सदस्यों को एक दूसरे के निकटतर लाने में आवश्यक रूप से मदद दी। संक्षेप में, विकसित होते मानव उस बिंदु पर पहुँचे जहाँ उन्हें एक दुसरे से कुछ कहने की जरूरत महसूस होने लगी। इस वाक्-प्रेरणा से धीरे-धीरे पर निश्चित रूप से काया पलट हुआ, जिस से कि लगातार और भी विकसित मूर्च्छना पैदा हो, और मुख के प्रत्यंग एक-एक कर नयी-नयी संहित ध्वनियों का उच्चारण करना धीरे-धीरे सीखते गए।
मनुष्य़ घोड़ा और कुत्ता |
पशुओं के साथ तुलना करने से सिद्ध हो जाता है कि यह व्याख्या ही एकमात्र सही व्याख्या है कि श्रम से और श्रम के साथ भाषा की उत्पत्ति हुई। अधिक से अधिक विकसित पशु भी एक दूसरे से बात करने की अपनी अतिस्वल्प आवश्य़कता संहित वाणी की सहायता के बिना ही पूरी कर सकते हैं। प्राकृतिक अवस्था में मानव वाणी न बोल सकने अथवा न समझ सकने के कारण कोई पशु दिक्क़त नहीं महसूस करता। किन्तु मनुष्य द्वारा पालतू बना लिए जाने पर बात बिल्कुल और ही होती है। मानव संगति के कारण कुत्तों और घोड़ों में संहित वाणी ग्रहण करने की ऐसी शक्ति विकसित हो जाती है कि वे, अपने विचार-वृत्त की सीमा के अंदर किसी भी भाषा को समझ लेना आसानी से सीख लेते हैं। इस के अतिरिक्त उन्हों ने मानव के प्रति प्यार और कृतज्ञता जैसे आवेग-जो पहले उन के लिए एकदम अनजान थे-महसूस करने की क्षमता विकसित कर ली है। ऐसे जानवरों से अधिक लगाव रखनेवाला कोई भी व्यक्ति यह माने बिना शायद ही रह सकता है कि ऐसे कितने ही जानवरों की मिसालें मौजूद हैं जो अब यह महसूस करते हैं कि उन का बोल न सकना एक ख़ामी है, यद्यपि उन के स्वरांगों के ख़ास दिशा में अति विशेषीकृत होने के कारण यह ख़ामी दुर्भाग्यवश अब दूर नहीं की जा सकती। पर जहाँ ये अंग मौजूद हैं, वहाँ कुछ सीमाओं के भीतर यह असमर्थता भी मिट जाती है। कहने की जरूरत नहीं कि पक्षियों के मुखांग मनु्ष्य के मुखांगों से अधिकतम भिन्न होते हैं, फिर भी पक्षी ही एक मात्र जीव हैं जो बोलना सीख लेते हैं। और सब से कर्कश स्वर वाला पक्षी-तोता सब से अच्छा बोल सकता है। यह आपत्ति नहीं की जानी चाहिए कि तोता जो बोलता है, उसे समझता नहीं है। यह सही है कि मानवों के साथ रहने और बोलने के सुख मात्र के लिए तोता लगातार घंटों टाँय टाँय करता जाएगा और अपना संपूर्ण शब्द भंडार लगातार दुहराता रहेगा। पर अपने विचार-वृत्त की सीमा के अंदर वह जो बोलता है उसे समझना भी सीख सकता है। किसी तोते को इस तरह से गालियाँ बोलना सिखा दीजिए कि उसे इन के अर्थ का थोड़ा आभास हो जाए (उष्ण देशों की यात्रा करने वाले जहाजियों का यह एक प्रिय मनोरंजन का साधन है), इस के बाद उसे छेड़िए। आप देखेंगे कि वह इन गालियों का बर्लिन के कुंजड़ों के समान ही सटीक उपयोग करेगा। ऐसा ही छोटी-मोटी चीजें मांगना सिखा देने पर भी होता है।
पहले श्रम, उस के बाद और उस के साथ वाणी-ये ही दो सब से सारभूत उद्दीपनाएँ थीं जिन के प्रभाव से वानर का मस्तिष्क धीरे-धीरे मनुष्य के मस्तिष्क में बदल गया, जो सारी समानता के बावजूद वानर के मस्तिष्क से कहीं बड़ा और अधिक परिनिष्पन्न है। मस्तिष्क के विकास के साथ-साथ ही उस के सब से निकटस्थ करणों, ज्ञानेन्द्रियों का विकास हुआ। जिस तरह वाणी के क्रमिक विकास के साथ अनिवार्य रूप से श्रवणेंद्रियों का तदनुरूप परिष्कार होता है, ठीक उसी तरह से समग्र रूप में मस्तिष्क के विकास के साथ-साथ सभी ज्ञानेन्द्रियों का परिष्कार होता है। उक़ाब मनुष्य से कहीं अधिक दूर तक देख सकता है, परन्तु मनुष्य की आँखें चीजों में बहुत कुछ ऐसा देख सकती हैं कि जो उक़ाब की आँखें नहीं देख सकतीं। कुत्ते में मनुष्य की अपेक्षा कहीं अधिक तीव्र घ्राणशक्ति होती है, परन्तु वह उन गंधों के सौवें भाग की भी अनुभूति नहीं कर सकता जो मनुष्य के लिए भिन्न-भिन्न वस्तुओं की द्योतक होती हैं। और स्पर्श शक्ति, जो कच्चे से कच्चे आरंभिक रूप में भी वानर के पास भी मुश्किल से ही होती है, केवल श्रम के माध्यम से स्वयं मानव हाथ के विकास के संग ही विकसित हुई है।
मस्तिष्क और उस के सहवर्ती ज्ञानेन्द्रियों के विकास, चेतना की बढ़ती स्पष्टता, विविक्त विचारणा तथा विवेक की शक्ति की प्रतिक्रिया ने श्रम और वाणी दोनों को ही और विकास करते जाने की नित नवीन उद्दीपना प्रदान की। मनुष्य के अंतिम रूप से वानर से भिन्न हो जाने के साथ इस विकास का समाप्त होना तो दूर रहा, वह प्रबल प्रगति ही करता गया। हाँ, विभिन्न जनगण और विभिन्न कालों में इस विकास की मात्रा और दिशा भिन्न-भिन्न रही है। जहाँ-तहाँ स्थानीय अथवा अस्थाई पश्चगमन के कारण उस में व्यवधान भी पड़ा। पूर्ण विकसित मानव के उदय होने के साथ एक नए तत्व, अर्थात समाज के मैदान में आ जाने से इस विकास को एक और अग्रगति की प्रबल प्रेरणा मिली और दूसरी ओर अधिक निश्चित दिशाओं में पथनिर्देशन प्राप्त हुआ।
बुद्धि और अनुकूलन-क्षमता में औरों से कहीं आगे बढ़ी हुई वानर-जाति में इस लुटेरू अर्थव्यवस्था का परिणाम इस के सिवा और कुछ न हो सकता था कि भोजन के लिए इस्तेमाल की जाने वाली वनस्पतियों की संख्या लगातार बढ़ती जाए और पौष्टिक वनस्पतियों के अधिकाधिक भक्ष्य भागों का भक्षण किया जाए। सारांश यह कि इस से भोजन अधिकाधिक विविधतायुक्त होता गया और इस के परिणामस्वरूप शरीर में ऐसे पदार्थ प्रविष्ट हुए, जिन्हों ने वानरों के मनुष्य में संक्रमण के लिए रासायनिक आधार का काम किया। परंतु अभी यह सब इस शब्द के अर्थ में श्रम नहीं था। श्रम औजार बनाने के साथ आरंभ होता है हमें जो प्राचीनतम औजार- वे औजार जिन्हें प्रागैतिहासिक मानव की दाय वस्तुओं के आधार पर तथा इतिहास में ज्ञात प्राचीनतम जनगण एवं आज की जांगल से जांगल जातियों की जीवन पद्धति के आधार पर हम प्राचीनतम कह सकते हैं -मिले हैं, वे क्या हैं? वे शिकार और मझली मारने के औजार हैं जिन में से शिकार के औजार आयुधों का भी काम देते थे। परंतु शिकार और मझली मारने की वृत्ति के लिए यह पूर्वमान्य है कि शुद्ध शाकाहार से उस के साथ-साथ संक्रमण की प्रक्रिया में यह एक और महत्वपूर्ण कदम है। माँसाहार में शरीर के उपापचयन के लिए दरकार सभी सब से अधिक आवश्यक तत्व प्रायः पूर्णतः तैयार मिलते हैं इस से पाचन के लिए दरकार समय की ही बचत नहीं हुई, अपितु वनस्पति-जीवन के अनुरूप अन्य शारीरिक विकास की प्रक्रियाओं के लिए दरकार समय भी घट गया और इस प्रकार पशु-जीवन की, इस शब्द के ठीक अर्थों में, सक्रिया अभिव्यंजना के लिए अधिक समय, सामग्री तथा शक्ति का लाभ हुआ।
विकसित होता मानव जितना ही वनस्पति जगत से दूर रहता गया, उतना ही वह पशु से ऊँचा उठता गया। जिस तरह मांसाहार के संग शाकाहार के अभ्यस्त होने के साथ जंगली बिल्लियाँ और कुत्ते मानव के सेवक बन गए, ठीक उसी तरह शाकाहार के साथ-साथ मांसाहार को अपनाने से विकसित होते मानव को शारीरिक शक्ति एवं आत्मनिर्भरता प्राप्त करने में भारी मदद मिली। परन्तु मांसाहार का सब से अधिक प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ा। मस्तिष्क को अपने पोषण और विकास के लिए आवश्यक सामग्री अब पहले से कहीं अधिक प्रचुरता से प्राप्त होने लगी, अतः अब वह पीढ़ी दर पीढ़ी अधिक तेजी और पूर्णता के साथ विकास कर सकता था। हम शाकाहारियों का बहुत आदर करते हैं, परन्तु हमें यह मानना ही पड़ेगा कि मांसाहार के बिना मनुष्य का आविर्भाव असंभव होता। हाँ, मांसाहार के कारण ही सभी ज्ञात जनगण यदि किसी काल में नरभक्षी बन गए थे (अभी दसवीं शताब्दी तक बर्लिनवासियों के पूर्वज, वेलेतोबियन या बिल्जियन लोग अपने माँ-बाप को मार कर खा जाया करते थे) तो आज इस का महत्व नहीं रह गया है।
मांसाहार के फलस्वरूप निर्णायक महत्व रखने वाले दो नए कदम उठाए गए- मनुष्य ने अग्नि को वशीभूत किया। दूसरे पशुपालन आरंभ हुआ। पहले के फलस्वरूप पाचन प्रक्रिया और संकुचित बन गयी क्यों कि इस की बदौलत मानव-मुख को मानो पहले से ही आधा पचा हुआ भोजन मिलने लगा। दूसरे ने मांस की पूर्ति का शिकार के अलावा एक नया, अधिक नियमित स्रोत प्रदान कर के मांस की सप्लाई को अधिक प्रचुर बना दिया। इस के अतिरिक्त दूध और दूध से बनी वस्तुओं के रूप में उस ने आहार की एक नयी सामग्री प्रदान की, जो अपने अवयवों की दृष्टि से उतनी ही मूल्यवान थी जितना कि मांस। अतः ये दोनों ही नयी प्रगतियाँ सीधे-सीधे मानव की मुक्ति का नया साधन बन गयीं। उन के अप्रत्यक्ष परिणामों को यहाँ विशद विवेचना करने से हम विषय से बहुत दूर चले जाएँगे, हालाँकि मानव और समाज के विकास के लिए उन का भारी महत्व है।
वानर से नर और लुटेरी अर्थव्यवस्था से पशुपालन तक
पेड़ों पर चढ़ने वाले एक वानर-दल से मानव-समाज के उदित होने से निश्चय ही लाखों वर्ष - जिन का पृथ्वी के इतिहास में मनुष्य-जीवन के एक क्षण से अधिक महत्व नहीं है, गुजर गए होंगे। परन्तु उस का उदय हो कर रहा। और यहाँ फिर वानर-दल एवं मानव-समाज मं हम क्या विशेष अंतर पाते हैं? अन्तर है, श्रम । वानर-दल अपने लिए भौगोलिक अवस्थाओं द्वारा अथवा पास-पड़ौस के अन्य वानर-दलों के प्रतिरोध द्वारा निर्णीत आहार-क्षेत्र में ही आहार प्राप्त कर के ही संतुष्ट था। वह नए आहार-क्षेत्र प्राप्त करने के लिए नयी जगहों में जाता था और संघर्ष करता था। परन्तु ये आहार क्षेत्र प्रकृत अवस्था में उसे जो कुछ प्रदान करते थे, उस से अधिक इन से कुछ प्राप्त करने की उस में क्षमता न थी। हाँ, उस ने अचेतन रूप से अपने मल-मूल द्वारा ही मिट्टी को उर्वर अवश्य बनाया। सभी संभव आहार क्षेत्रों पर वानर-दलों द्वारा कब्जा होते ही वानरों की संख्या अधिक से अधिक यथावत रह सकती थी। परंतु सभी पशु बहुत-सा आहार बरबाद करते हैं, इस के अतिरिक्त वे खाद्य पूर्ति की आगामी पौध को अंकुर रूप में ही नष्ट कर देते हैं। शिकारी अगले वर्ष मृग-शावक देने वाली हिरणी को नहीं मारता, परन्तु भेड़िया उसे मार डालता है। तरु-गुल्मों के बढ़ने से पहले ही उन्हें चर जाने वाली यूनान की बकरियों ने देश की सभी पहाड़ियों की नंगा बना दिया है। पशुओं की यह लुटेरू अर्थव्यवस्था उन्हें सामान्य खाद्यों के अतिरिक्त अन्य खाद्यों को अपनाने को मजबूर कर के पशु-जातियों के क्रमिक रूपांतरण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है, क्यों कि उस की बदौलत उन का रक्त भिन्न रासायनिक संरचना प्राप्त करता है और समूचा शारीरिक गठन क्रमशः बदल जाता है। दूसरी ओर पहले कायम हो चुकने वाली जातियाँ धीरे-धीरे विनष्ट हो जाती हैं। इस में कोई संदेह नहीं है कि इस लुटेरू अर्थ व्यवस्था ने वानर से मनुष्य में हमारे पूर्वजों के संक्रमण में प्रबल भूमिका अदा की है।
बुद्धि और अनुकूलन-क्षमता में औरों से कहीं आगे बढ़ी हुई वानर-जाति में इस लुटेरू अर्थव्यवस्था का परिणाम इस के सिवा और कुछ न हो सकता था कि भोजन के लिए इस्तेमाल की जाने वाली वनस्पतियों की संख्या लगातार बढ़ती जाए और पौष्टिक वनस्पतियों के अधिकाधिक भक्ष्य भागों का भक्षण किया जाए। सारांश यह कि इस से भोजन अधिकाधिक विविधतायुक्त होता गया और इस के परिणामस्वरूप शरीर में ऐसे पदार्थ प्रविष्ट हुए, जिन्हों ने वानरों के मनुष्य में संक्रमण के लिए रासायनिक आधार का काम किया। परंतु अभी यह सब इस शब्द के अर्थ में श्रम नहीं था। श्रम औजार बनाने के साथ आरंभ होता है हमें जो प्राचीनतम औजार- वे औजार जिन्हें प्रागैतिहासिक मानव की दाय वस्तुओं के आधार पर तथा इतिहास में ज्ञात प्राचीनतम जनगण एवं आज की जांगल से जांगल जातियों की जीवन पद्धति के आधार पर हम प्राचीनतम कह सकते हैं -मिले हैं, वे क्या हैं? वे शिकार और मझली मारने के औजार हैं जिन में से शिकार के औजार आयुधों का भी काम देते थे। परंतु शिकार और मझली मारने की वृत्ति के लिए यह पूर्वमान्य है कि शुद्ध शाकाहार से उस के साथ-साथ संक्रमण की प्रक्रिया में यह एक और महत्वपूर्ण कदम है। माँसाहार में शरीर के उपापचयन के लिए दरकार सभी सब से अधिक आवश्यक तत्व प्रायः पूर्णतः तैयार मिलते हैं इस से पाचन के लिए दरकार समय की ही बचत नहीं हुई, अपितु वनस्पति-जीवन के अनुरूप अन्य शारीरिक विकास की प्रक्रियाओं के लिए दरकार समय भी घट गया और इस प्रकार पशु-जीवन की, इस शब्द के ठीक अर्थों में, सक्रिया अभिव्यंजना के लिए अधिक समय, सामग्री तथा शक्ति का लाभ हुआ।
विकसित होता मानव जितना ही वनस्पति जगत से दूर रहता गया, उतना ही वह पशु से ऊँचा उठता गया। जिस तरह मांसाहार के संग शाकाहार के अभ्यस्त होने के साथ जंगली बिल्लियाँ और कुत्ते मानव के सेवक बन गए, ठीक उसी तरह शाकाहार के साथ-साथ मांसाहार को अपनाने से विकसित होते मानव को शारीरिक शक्ति एवं आत्मनिर्भरता प्राप्त करने में भारी मदद मिली। परन्तु मांसाहार का सब से अधिक प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ा। मस्तिष्क को अपने पोषण और विकास के लिए आवश्यक सामग्री अब पहले से कहीं अधिक प्रचुरता से प्राप्त होने लगी, अतः अब वह पीढ़ी दर पीढ़ी अधिक तेजी और पूर्णता के साथ विकास कर सकता था। हम शाकाहारियों का बहुत आदर करते हैं, परन्तु हमें यह मानना ही पड़ेगा कि मांसाहार के बिना मनुष्य का आविर्भाव असंभव होता। हाँ, मांसाहार के कारण ही सभी ज्ञात जनगण यदि किसी काल में नरभक्षी बन गए थे (अभी दसवीं शताब्दी तक बर्लिनवासियों के पूर्वज, वेलेतोबियन या बिल्जियन लोग अपने माँ-बाप को मार कर खा जाया करते थे) तो आज इस का महत्व नहीं रह गया है।
मांसाहार के फलस्वरूप निर्णायक महत्व रखने वाले दो नए कदम उठाए गए- मनुष्य ने अग्नि को वशीभूत किया। दूसरे पशुपालन आरंभ हुआ। पहले के फलस्वरूप पाचन प्रक्रिया और संकुचित बन गयी क्यों कि इस की बदौलत मानव-मुख को मानो पहले से ही आधा पचा हुआ भोजन मिलने लगा। दूसरे ने मांस की पूर्ति का शिकार के अलावा एक नया, अधिक नियमित स्रोत प्रदान कर के मांस की सप्लाई को अधिक प्रचुर बना दिया। इस के अतिरिक्त दूध और दूध से बनी वस्तुओं के रूप में उस ने आहार की एक नयी सामग्री प्रदान की, जो अपने अवयवों की दृष्टि से उतनी ही मूल्यवान थी जितना कि मांस। अतः ये दोनों ही नयी प्रगतियाँ सीधे-सीधे मानव की मुक्ति का नया साधन बन गयीं। उन के अप्रत्यक्ष परिणामों को यहाँ विशद विवेचना करने से हम विषय से बहुत दूर चले जाएँगे, हालाँकि मानव और समाज के विकास के लिए उन का भारी महत्व है।
श्रम - मनुष्य तथा अन्य पशुओं के बीच अंतिम एवं सारभूत अंतर
भारतीय प्राचीन आवास (मोहेन्जोदड़ो) |
जिस तरह मनुष्य ने सभी भक्ष्य वस्तुओं को खाना सीखा, उसी तरह उस ने किसी भी जलवायु में रह लेना भी सीखा। वह समूची निवास योग्य दुनिया में फैल गया। वही एक मात्र पशु ऐसा था जिस में खुद-ब-खुद ऐसा करने की क्षमंता थी। अन्य पशु-पालतू जानवर और कृमि-अपने आप नहीं, बल्कि मनुष्य का अनुसरण कर ही सभी जलवायुओं के अभ्यस्त बने। और मानव द्वारा एक समान गरम जलवायु वाले अपने मूल निवास स्थान से ठण्डे इलाकों में स्थानान्तरण से, जहाँ वर्ष के दो भाग हैं- ग्रीष्म ऋतु एवं शीत ऋतु - नयी आवश्यकताएँ उत्पन्न हुई - शीत और नमी से बचाव के लिए घर और पहनावे की आवश्यकता उत्पन्न हुई जिस से श्रम के नए क्षेत्र आविर्भूत हुए। फलतः नए प्रकार के कार्यकलाप आरंभ हुए जिन से मनुष्य पशु से और भी अधिकाधिक पृथक होता गया।
वस्त्रों की आरंभिक आवश्यकता |
प्रत्येक व्यक्ति में ही नहीं, बल्कि समाज में भी हाथों स्वरांगों और मस्तिष्क के संयुक्त काम से मानव अधिकाधिक पेचीदा कार्य करने के तथा सतत उच्चतर लक्ष्य अपने सामने रखने और उन्हें हासिल करने के योग्य बने। हर पीढ़ी के गुजरने के साथ स्वयं श्रम भिन्न, अधिक परिनिष्पन्न, अधिक विविधतायुक्त होता गया। शिकार और पशुपालन के अतिरिक्त कृषि भी की जाने लगी। फिर कताई, बुनाई, धातुकारी, कुम्हारी और नौचालन की बारी आयी। व्यापार और उद्योग के साथ अन्ततः कला और विज्ञान का आविर्भाव हुआ। क़बीलों से जातियों और राज्यों का विकास हुआ। प्रथमतः मस्तिष्क की उपज लगने वाले और मानव समाजों के ऊपर छाए प्रतीत होने वाले इन सारे सृजनों के आगे श्रमशील हाथ के अधिक साधारण उत्पादन पृष्टभूमि में चले गए। ऐसा इस कारण से भी हुआ कि समाज के विकास की बहुत प्रारंभिक मंजिल से ही (उदाहरणार्थ आदिम परिवार से ही) श्रम को नियोजित करने वाला मस्तिष्क नियोजित घम को दूसरों के हाथों से करा सकने में समर्थ था। सभ्यता की द्रुत प्रगति का समूचा श्रेय मस्तिष्क को, मस्तिष्क के विकास एवं क्रियाकलाप को दे डाला गया। मनुष्य अपने कार्यों की व्याख्या अपनी आवश्यकताओं से करने के बदले अपने विचारों से करने के आदी हो गए (हालाँकि आवश्यकताएँ ही मस्तिष्क में प्रतिबिंबित होती हैं, चेतना द्वारा ग्रहण की जाती हैं)। अतः कालक्रम में उस भाववादी विश्वदृष्टिकोण का उदय हुआ जो प्राचीन यूनानी-रोमन समाज के पतन के बाद से तो ख़ास तौर पर मानवों के मस्तिष्क पर हावी रहा है। वह अब भी उन पर इस हद तक हावी है कि डार्विन पंथ के भौतिकवादी से भौतिकवादी प्रकृति विज्ञानी भी अभी तक मनुष्य की उत्पत्ति के विषय में स्पष्ट धारणा निरूपित करने में असमर्थ हैं क्यों कि इस विचारधारा के प्रभाव में पड़ कर वे इस में श्रम द्वारा अदा की गई भूमिका को नहीं देखते।
चार्ल्स डार्विन |
जैसा कि पहले ही इंगित किया जा चुका है, पशु अपने क्रियाकलाप से मानवों की भाँति बाह्य प्रकृति को परिवर्तित करते हैं यद्यपि वे उस हद तक ऐसा नहीं करते जिस हद तक मनुष्य करता है। और जैसा कि हम देख चुके हैं उन के द्वारा अपने परिवेश में किया गया यह परिवर्तन उलट कर उन के ऊपर असर डालता है तथा अपने प्रणेताओं को परिवर्तित करता है। प्रकृति में पृथक रूप से कुछ भी नहीं होता। हर चीज अन्य चीजों पर प्रभाव डालती तथा उन के द्वारा स्वयं प्रभावित होती है। इस सर्वांगीण गति एवं अन्योन्यक्रिया को बहुधा भुला देने के कारण ही प्रकृति-विज्ञानी साधारण से साधारण चीजों को स्पष्टता के साथ नहीं देख पाते। हम देख चुके हैं कि किसक तरह बकरियों ने यूनान में वनों के पुनर्जन्म को रोका है। सेंट हलेना द्वीप में वहाँ पहुँचनेवाले प्रथम यात्रियों द्वारा उतारे गए बकरों और सुअरों ने पहले से चली आती वहाँ की वनस्पतियों का लगभग पूरी तरह सफाया कर दिया और ऐसा कर के उन्हों ने बाद में आए नाविकों और आबादकारों द्वारा लाए गए पौधों के प्रसार के लिए जमीन तैयार की। परन्तु यदि पशु अपने परिवेश पर अधिक समय तक प्रभाव डालते हैं तो ऐसा अचेत रूप से ही होता है तथा स्वयं पशुओं को सम्बन्ध में यह महज संयोग की बात होती है. लेकिन मनुष्य पशु से जितना ही अधिक दूर होते हैं, प्रकृति पर उन का प्रभाव पहले से ज्ञात निश्चित लक्ष्यों की ओर निर्देशित, नियोजित क्रिया का रूप धारण कर लेता है। पशु यह महसूस किए बिना कि वह क्या कर रहा है, किसी इलाके की वनस्पतियों को नष्ट करता है। मनुष्य नष्ट करता है मुक्त भूमि पर फसलें बोने के लिए अथवा वृक्ष एवं अंगूर की लताएँ रोपने के लिए, जिन के बारे में वह जानता है कि वे बोयी गई मात्रा से कहीं अधिक उपज देंगी। उपयोगी पौधों और पालतू पशुओं को वह एक देश से दूसरे में स्थानान्तरित करता है और इस प्रकार पूरे के पूरे महाद्वीपों के पशुओं एवं पादपों को बदल डालता है। इतना ही नहीं, कृत्रिम प्रजनन के द्वारा वनस्पति और पशु दोनों ही मानव के हाथों से इस तरह बदल दिए जाते हैं कि वने पहचाने भी नहीं जा सकते। उन जंगली पौधों की व्यर्थ ही अब खोज की जा रही है जिन से हमारे नाना प्रकार के अन्नों की उत्पत्ति हुई है। यह प्रश्न कि हमारे कुत्तों का, जो खुद भी एक दूसरे से अति भिन्न हैं, अथवा उतनी ही भिन्न नस्लों के घोड़ों का पूर्वज कौन सा वन्य पशु है अब भी विवादास्पद है।
इतिहास को दोहराता भ्रूण का विकास |
बात चाहे जो भी हो, पशुओं के नियोजित पूर्वकल्पित ढंग से काम कर सकने की क्षमता के बारे में विवाद उठाना हमारा मक़सद नहीं है। इस के विपरीत, जहाँ भी प्रोटोप्लाज्म का, जीवित एल्बुमिन का अस्तित्व है और वह प्रतिक्रिया करता है, यानी निश्चित बाह्य उद्दीपनाओं के फलस्वरूप निश्चित क्रियाएँ संपन्न करता है, भले ही ये क्रियाएँ अत्यन्त ही सहज प्रकार की हों, वहाँ क्रिया की एक नियोजित विधि विद्यमान रहती है। यह प्रतिक्रिया वहाँ भी होती है जहाँ अभी कोई कोशिका नहीं है, तंत्रिका कोशिका की तो बात दूर रही। इसी प्रकार से कीटभक्षी पौधों का अपना शिकार पकड़ने का ढंग किसी मानी में नियोजित क्रिया सा लगता है यद्यपि वह बिलकुल अचेतन रूप में की जाती है। पशुओं में सचेत, नियोजित क्रिया की क्षमता तंत्रिका तन्त्र के विकास के अनुपात में विकसित होती है और स्तनधारी पशुओं में यह काफी उच्च स्तर तक पहुँच जाती है। इंग्लेंड में लोमड़ी का शिकार करने वाले आसानी से यह देख सकते हैं कि लोमड़ी अपना पीछा करने वालों की आँखों में धूल झोंकने के लिए स्थानीय इलाके की अपनी उत्तम जानकारी का इस्तेमाल करने का कैसा अचूक ज्ञान रखती है और भूमि की अनपे लिए सुविधाजनक हर विशेषता को वह कितनी अच्छी तरह जानती तथा कितनी अच्छी तरह शिकारी को गुमराह कर देने के लिए उस का इस्तेमाल करती है। मानव की संगति में रहने के कारण अधिक विकसित पालतू पशुओं को हम नित्य ही चतुराई के ठीक उस स्तर के कार्य करते देखते हैं जिस स्तर के बच्चे किया करते हैं। कारण यह है कि जिस प्रकार माता के गर्भ में मानव भ्रूण के विकास का इतिहास करोड़ों वर्षों में फैले हमारे पशु पूर्वजों के केंचुए से आरम्भ कर के अब तक के शारीरिक विकास के इतिहास की संक्षिप्त पुनरावृत्ति है, उसी प्रकार मानव शिशु का मानसिक विकास इन्हीं पूर्वजों के, कम से कम बाद में आने वाले पूर्वजों के, बौद्धिक विकास की ओर भी संक्षिप्त पुनरावृत्ति है। पर सारे के सारे पशुओं की सारी की सारी नियोजित क्रिया भी कभी धरती पर उन की इच्छा की छाप न छोड़ सकी। यह श्रेय मनुष्य को ही प्राप्त हुआ।
सेंट हेलेना द्वीप |
संक्षेप में, पशु बाह्य प्रकृति का उपयोग मात्र करता है और उस में केवल अपनी उपस्थिति द्वारा परिवर्तन लाता है। पर मनुष्य अपने परिवर्तनों द्वारा प्रकृति से अपने काम करवाता है, उस पर स्वामिवत शासन करता है। यही मनुष्य तथा अन्य पशुओं के बीच अंतिम एवं सारभूत अंतर है। श्रम यहाँ भी इस अन्तर को लाने वाला होता है। (गौरवशाली बनाने वाला होता है)
प्रकृति उस पर हर विजय का हम से प्रतिशोध लेती है
परंतु प्रकृति पर अपनी मानवीय विजयों के कारण हमें आत्मप्रशंसा में विभोर नहीं हो जाना चाहिए, क्यों कि वह हर ऐसी विजय का हम से प्रतिशोध लेती है। यह सही है कि प्रत्येक विजय से प्रथमतः वे ही परिणाम प्राप्त होते हैं जिन का हम ने भरोसा किया था, पर द्वितीयतः और तृतीयतः उस के परिणाम बिल्कुल ही भिन्न तथा अप्रत्याशित होते हैं, जिन से अक्सर पहले परिणाम का असर जाता रहता है। मेसोपोटामिया, यूनान. एशिया माइनर, तथा अन्य स्थानों में जिन लोगों ने कृषि योग्य भूमि प्राप्त करने के लिए वनों को बिल्कुल ही नष्ट कर डाला, उन्हों ने कभी यह कल्पना नहीं की थी कि वनों के साथ आर्द्रता के संग्रह-केन्द्रों और आगारों का उन्मूलन कर के वे इन देशों की मौजूदा तबाही की बुनियाद डाल रहे हैं। एल्प्स के इटालियनों ने जब पर्वतों की दक्षिणी ढलानों पर चीड़ के वनों को (ये दक्षिणी ढलानों पर खूब सुरक्षित रखे गए थे) पूरी तरह काट डाला, तब उन्हें इस बात का आभास नहीं था कि ऐसा कर के वे अपने प्रदेश के दुग्ध उद्योग पर कुठाराघात कर रहे हैं। इस से भी कम आभास उन्हें इस बात का था कि अपने कार्य द्वारा वे अपने पर्वतीय स्रोतों को वर्ष के अधिक भाग के लिए जलहीन बना रहे हैं तथा साथ ही इन स्रोतों के लिए यह सम्भव बना रहे हैं कि वे वर्षा ऋतु में मैदानों में और भी अधिक भयानक बाढ़ें लाया करें। यूरोप में आलू का प्रचार करने वालों को यह ज्ञात नहीं था कि असल मंडमय कंद को फैलाने के साथ-साथ वे स्क्रोफुला रोग का भी प्रसार कर रहे हैं। अतः हमें हर पग पर यह याद कराया जाता है कि प्रकृति पर हमारा शासन किसी विदेशी जाति पर एक विजेता के शासन जैसा कदापि नहीं है, वह प्रकृति से बाहर के किसी व्यक्ति जैसा शासन नहीं है, बल्कि रक्त, मांस, और मस्तिष्क से युक्त हम प्रकृति के ही प्राणी हैं, हमारा अस्तित्व उस के मध्य है और उस के ऊपर हमारा सारा शासन केवल इस बात में निहित है कि अन्य सभी प्राणियों से हम इस मानों में श्रेष्ठ हैं कि हम प्रकृति के नियमों को जान सकते हैं और ठीक-ठीक लागू कर सकते हैं।
स्क्रोफुला के परिणाम |
वास्तव में, ज्यों-ज्यों दिन बीतते जाते हैं हम उस के नियमों को अधिकाधिक सही ढंग से सीखते जाते हैं और प्रकृति के नैसर्गिक प्रक्रम में अपने हस्तक्षेप के तात्कालिक परिणामों के साथ उस के दूरवर्ती परिणामों के भी देखने लगे हैं। खा़स कर प्रकृति-विज्ञान की वर्तमान शताब्दी की प्रबल प्रगति के बाद तो हम अधिकाधिक ऐसी स्थिति में आते जा रहे हैं जहाँ कम से कम अपने सब से साधारण उत्पादक क्रियाकलाप के अधिक दूरवर्ती परिणामों तक को हम जान सकते हैं और फलतः उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं। लेकिन जितना ही ज्यादा ऐसा होगा उतनी ही ज्यादा मनुष्य प्रकृति के साथ अपनी एकता न केवल महसूस करेंगे बल्कि उसे समझेंगे भी और तब यूरोप में प्राचीन क्लासिकीय युग के अवसान के बाद उद्भूत होने वाली ईसाई मत में सब से अधिक विशद रूप में निरूपित की जाने वाली मस्तिष्क और भूतद्रव्य, मनुष्य और प्रकृति, आत्मा और शरीर के वैपरीत्य की निरर्थक एवं अस्वाभाविक धारणा उतनी ही अधिक असम्भव होती जायेगी।
अकाल |
परन्तु उत्पादन की दिशा में निर्देशित अपने कार्यकलाप के अधिक दूरवर्ती प्राकृतिक फलों का आकलन सीखने में जहाँ हमें हजारों वर्षों की मेहनत लग चुकी है, वहाँ इन क्रियाओं के अधिक दूरवर्ती सामाजिक फलों का आकलन करने का काम और भी दुष्कर रहा है। आलू के प्रचार के फलस्वरूप स्क्रोफुला रोग के प्रसार की हम चर्चा कर चुके हैं। परन्तु श्रम जीवियों के आलू के आहार पर ही आश्रित हो जाने का पूरे के पूरे देशों के अन्दर जनसमुदाय की जीवनावस्था पर जो प्रभाव पड़ा है, उस के मुकाबले स्क्रोफुला रोग भी भला क्या है? अथवा उस अकाल की तुलना में ही यह रोग क्या था जिस ने आलू की फसल में कीड़ा लग जाने के फलस्वरूप 1847 में आयरलैंड को अपना ग्रास बनाया था और सम्पूर्णतया या लगभग सम्पूर्णतया आलू के आहार पर पले दस लाख आयरलैंडवासियों को मौत का शिकार बना दिया तथा बीस लाख को विदेशों में जा कर बसने को मजबूर किया था? जब अरबों ने शराब चुआना सीखा तो यह बात उन के दिमाग में बिल्कुल नहीं आयी थी कि ऐसा कर के वे उस समय अज्ञात अमरीकी महाद्वीप के आदिवासियों के भावी उन्मूलन का एक मुख्य साधन उत्पन्न कर रहे थे। और बाद में जब कोलम्बस ने अमरीका की खोज की तो उसे नहीं पता था कि ऐसा कर के वह यूरोप में बहुत पहले मिटायी जा चुकी दास-प्रथा को नवजीवन प्रदान कर रहा था और नीग्रो-व्यापार की नींव डाल रहा था। सत्रहवीं और अठारवीं शताब्दियों में भाप का इंजन आविष्कार करने में संलग्न लोगों के दिमाग में यह बात नहीं आयी थी कि वे वह औजार तैयार कर रहे हैं जो समूची दुनिया के अन्दर सामाजिक सम्बन्धों में अन्य किसी भी औजार की अपेक्षा बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन ला देने वाला होगा, खास कर के यूरोप में यह औजार थोड़े से लोगों के हाथ में धन को संकेंद्रित करते हुए और विशाल बहुसंख्यक को सम्पत्तिहीन बनाते हुए पहले तो पूंजीपति वर्ग को सामाजिक और राजनीतिक प्रभुता प्रदान करने वाला, लेकिन उस के बाद पूंजीपति और सर्वहारा वर्गों के उस वर्ग-संघर्ष को जन्म देनेवाला होगा जिस का अन्तिम परिणाम पूंजीपति वर्ग की सत्ता का खात्मा और सभी वर्ग विग्रहों की समाप्ति ही हो सकता है। परन्तु इस क्षेत्र में भी लम्बे और प्रायः कठोर अनुभव के बाद तथा ऐतिहासिक सामग्री का संग्रह और विश्लेषण कर के धीरे-धीरे हम अपने उत्पादक क्रियाकलाप के अप्रत्यक्ष, अधिक दूरवर्ती सामाजिक परिणामों को स्पष्ट देखना सीख रहे हैं। इस प्रकार इन परिणामों को भी नियंत्रित और नियमित करने की सम्भावना हमारे सामने प्रस्तुत हो रही है।
पर ऐसे नियमन को क्रियान्वित करने के लिए ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है। इस के लिए हमारी अभी तक की उत्पादन-प्रणाली में, और उस के साथ हमारी समूची समकालीन समाज-व्यवस्था में आमूल क्रांति अपेक्षित है।
तात्कालिक मुनाफे की अर्थव्यवस्था के परिणाम
नंगे पहाड़ |
आज तक जितनी भी उत्पादन-प्रणालियाँ रही हैं, उन सब का लक्ष्य केवल श्रम के सब से तात्कालिक एवं प्रत्यक्षतः उपयोगी परिणाम प्राप्त करना मात्र रहा है। इस के आगे के परिणामों की, जो बाद में आते हैं तथा क्रमिक पुनरावृत्ति एवं संचय द्वारा ही प्रभावोत्पादक बनते हैं, पूर्णतया उपेक्षा की गई। भूमि का सम्मिलित स्वामित्व जो आरम्भ में था, एक ओर तो मानवों के ऐसे विकास स्तर के अनुरूप था जिस में उन का क्षितिज सामान्यतः सम्मुख उपस्थित वस्तुओं तक सीमित था, दूसरी ओर उस मे उपलब्ध भूमि का कुछ फ़ाजिल होना पूर्वमान्य था जिस से कि इस आदिम किस्म की अर्थव्यवस्था के किन्ही सम्भव दुष्परिणामों का निराकरण करने की गुंजाइश पैदा होती थी। इस फ़ाजिल भूमि के चुक जाने के साथ सम्मिलित स्वामित्व का ह्रास होने लगा, पर उत्पादन के सभी उच्चतर रूपों के परिणामस्वरूप आबादी विभिन्न वर्गों में विभक्त हो जाती थी और इस विभाजन के कारण शासक और उत्पीड़ित वर्गों का विग्रह शुरू हो जाता था। अतः शासक वर्ग का हित उस हद तक उत्पादन का मुख्य प्रेरक तत्व बन गया। जिस हद तक कि उत्पादन उत्पीड़ित जनता के जीवन-निर्वाह के न्यूनतम साधनों तक ही सीमित न था। पश्चिमी यूरोप में आज प्रचलित पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली में यह चीज सब से अधिक पूर्णता के साथ क्रियान्वित की गई है। उत्पादन और विनिमय पर प्रभुत्व रखने वाले अलग अलग पूँजीपति अपने कार्यों के सब से तात्कालिक उपयोगी परिणाम की चिन्ता करने में ही समर्थ हैं। वस्तुतः यह उपयोगी परिणाम भी - जहाँ तक कि प्रश्न उत्पादित और विनिमय की गई वस्तु की उपयोगिता का ही होता है - पृष्ठभूमि में चला जाता है और विक्रय द्वारा मिलने वाला मुनाफा एकमात्र प्रेरक तत्व बन जाता है।
मंदी |
पूँजीपति वर्ग का सामाजिक विज्ञान - क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्र - प्रधानतया उत्पादन और विनिमय से सम्बन्धित मानव क्रियाकलापों के केवल सीधे-सीधे इच्छित सामाजिक प्रभावों को ही लेता है। वह पूर्णतया उस सामाजिक संगठन के अनुरूप है जिस की वह सैद्धान्तिक व्याख्या है। चूँकि पूँजीपति तात्कालिक मुनाफे के लिए उत्पादन और विनिमय करते हैं इसलिए केवल निकटतम, सब से तात्कालिक परिणामों का ही सर्वप्रथम लेखा लिया जा सकता है। कोई कारखानेदार अथवा व्यापारी जब तक सामान्य इच्छित मुनाफे पर किसी उत्पादित अथवा खरीदे माल को बेचता है वह खुश रहता है और इस की चिन्ता नहीं करता कि बाद में माल और उस के खरीददारों का क्या होता है। इस क्रियाकलाप के प्राकृतिक प्रभावों के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। जब क्यूबा में स्पेनी बागान मालिकों ने पर्वतों की ढलानों पर खड़े जंगलों को जला डाला और उन की राख से अत्यन्त लाभप्रद कहवा-वृक्षों की केवल एक पीढ़ी के लिए पर्याप्त खाद हासिल की, तब उन्हें इस बात की परवाह न हुई कि बाद में उष्णप्रदेशीय भारी वर्षा मिट्टी की अरक्षित परत को बहा ले जाएगी और नंगी चट्टाने ही छोड़ देगी ! जैसे समाज के सम्बन्ध में वैसे ही प्रकृति के सम्बन्ध में भी वर्तमान उत्पादन-प्रणाली मुख्यतया केवल प्रथम, ठोस परिणाम भर से मतलब रखती है। और तब विस्मय प्रकट किया जाता है कि इस, उद्देश्य की पूर्ति के लिए किये गये क्रियाकलाप के दूरवर्ती प्रभाव दूसरे ही प्रकार के, बल्कि मुख्यतया बिलकुल उलटे ही प्रकार के होते हैं; कि पूर्ति और मांग का तालमेल बिलकुल विपरीत वस्तु में परिणत हो जाता है (जैसा कि प्रत्येक दस वर्षीय औद्योगिक चक्र से, जिस का जर्मनी तक "गिरावट" के मौके पर आरम्भिक स्वाद चख़ चुका है, सिद्ध हो चुका है) ; कि अपने श्रम पर आधारित निजि-स्वामित्व अनिवार्यतः मजदूरों की संपत्तिहीनता में विकसित हो जाता है जब कि समस्त धन गैरमजदूरों के हाथों में अधिकाधिक केन्द्रित होता जाता है; कि [.....]*
* लेख की पाण्डुलिपि यहीँ समाप्त हो जाती है।
प्रस्तुतकर्ता- दिनेशराय द्विवेदी
Thursday, January 20, 2011
ਸੰਤਾਲੀ ਦਾ ਕਤਲਾਮ ਅਤੇ ਨਾਨਕ ਸਿੰਘ -ਸਤਿੰਦਰ ਸਿੰਘ ਨੂਰ
ਸੰਤਾਲੀ ਦਾ ਤੂਫਾਨ ਜਦੋਂ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋਇਆ ਮੈਂ ਉਮਰ ਦੇ ਛੇਵੇਂ ਵਰ੍ਹੇ ਵਿਚ ਅੰਮ੍ਰਿਤਸਰ ਵਿਚ ਸਾਂ, ਪਰ ਜੋ ਕੁਝ ਦੇਖਿਆ ਤੇ ਅਜੇ ਵੀ ਸਿਮਰਿਤੀ ਵਿਚ ਠਹਿਰਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ ਉਸਨੇ ਮੇਰੀ ਦ੍ਰਿਸ਼ਟੀ ਤੇ ਸਾਹਿਤ-ਚੇਤਨਾ ਦੇ ਅਗੇਰੇ ਜਾ ਕੇ ਅਚੇਤੇ ਸੁਚੇਤੇ ਬਹੁਤ ਨਿਰਣੇ ਕੀਤੇ, ਮੈਂ ਨਿਰਖਦਾ ਪਰਖਦਾ ਰਿਹਾ ਕਿ ਸੰਤਾਲੀ ਦੀ ਤ੍ਰਾਸਦੀ ਬਾਰੇ ਅਸੀਂ ਕੋਈ ਰਚਨਾ ਕਰ ਵੀ ਸਕੇ ਹਾਂ, ਜਿਸਨੂੰ ਸਾਡੇ ਸਾਹਿਤ ਦਾ ਸ਼ਾਹਕਾਰ ਆਖਿਆ ਜਾ ਸਕੇ? ਉਮਰ ਦਾ ਛੇਵਾਂ ਸਾਲ ਕੁਝ ਵੀ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ, ਪਰ ਇਸ ਤੂਫਾਨ ਨੇ ਹੋਸ਼ ਲਿਆ ਦਿੱਤੀ। ਇਸੇ ਲਈ ਮੈਂ ਇਸ ਨੂੰ ਤ੍ਰਾਸਦਿਕ-ਚੇਤਨਾ ਆਖਿਆ ਹੈ। ਇਕ ਅਜਿਹਾ ਤੂਫਾਨ ਜਿਸ ਦਾ ਰੁਕਣਾ ਕਠਿਨ ਹੋ ਗਿਆ ਸੀ। ਅਜਿਹੇ ਜਾਂ ਹੋਰ ਤੂਫਾਨ ਕਈ ਵਾਰ ਇਤਿਹਾਸ ਵਿਚ ਵਾਪਰਦੇ ਹਨ ਤੇ ਇਹ ਤ੍ਰਾਸਦਿਕ ਤੂਫਾਨ ਹੋਸ਼ ਵੀ ਲਿਆਉਂਦੇ ਹਨ। ਚੇਤਨਾ ਵੀ ਦਿੰਦੇ ਹਨ। ਸਭਿਆਚਾਰ ਤੇ ਸਾਹਿਤ ਵਿਚ ਅਗੇਰੇ ਵਧਦਿਆਂ ਅਸੀਂ ਉਸਨੂੰ ਕਿੰਨਾ ਕੁ ਸਮਝਦੇ ਹਾਂ, ਉਹ ਸਾਡੇ ਅਚੇਤਨ ਵਿਚ ਕਿਵੇਂ ਪਿਆ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ? ਇਸ ਚੇਤਨਾ 'ਚੋਂ ਸਭਿਆਚਾਰ ਬਣਦੇ ਤੇ ਢਹਿੰਦੇ ਹਨ। ਜਦੋਂ ਅੰਮ੍ਰਿਤਸਰ ਵਿਚ ਇਹ ਤੂਫਾਨ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋਇਆ ਤਾਂ ਸਾਡੀ ਹੀ ਇਮਾਰਤ ਦੇ ਇਕ ਘਰ 'ਚੋਂ ਇਕ ਬੰਦਾ (ਸ਼ਾਇਦ ਉਸ ਦਾ ਨਾਂ ਆਤਮਾ ਸਿੰਘ ਸੀ) ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਦੇ ਖ਼ਿਲਾਫ ਟਾਂਗੇ 'ਤੇ ਢੰਡੋਰਾ ਪਿੱਟਦਾ ਆਇਆ ਸੀ ਤੇ ਲਹੂ-ਲੁਹਾਨ ਸ਼ਾਮ ਨੂੰ ਘਰ ਪਰਤਿਆ ਸੀ। ਇਸ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਮੈਨੂੰ ਪਤਾ ਨਹੀਂ ਸੀ ਕਿ ਸੰਤਾਲੀ ਕਿਸ ਬਲਾ ਦਾ ਨਾਮ ਹੈ। ਸੰਤਾਲੀ ਹੀ ਨਹੀਂ ਇਹ ਵੀ ਨਹੀਂ ਸੀ ਪਤਾ ਕਿ ਸਮਾਂ ਤੇ ਸਥਾਨ ਕੀ ਹੁੰਦੇ ਹਨ। ਇਸ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਆਲੇ-ਦੁਆਲੇ ਲੁੱਟਮਾਰ, ਕਤਲੋਗਾਰਤ ਦਾ ਇਕ ਤੂਫਾਨ ਝੁੱਲ ਉਠਿਆ। ਇਕ ਦਿਨ ਬਾਅਦ ਹੀ ਸਾਡੇ ਘਰ ਦੇ ਨੇੜੇ ਇਕ ਮਸੀਤ ਦੇ ਬਾਹਰ (ਜਿਸ ਦਾ ਦ੍ਰਿਸ਼ ਉਪਰੋਂ ਨਜ਼ਰ ਆਉਂਦਾ ਸੀ) ਮੁਸਲਮਾਨ ਜੁੰਮੇ ਦੀ ਨਮਾਜ਼ ਪੜ੍ਹ ਰਹੇ ਸਨ। ਅਚਾਨਕ ਹੀ ਨਿਹੰਗਾਂ ਦੇ ਇਕ ਜਥੇ ਨੇ ਮਸੀਤ ਆ ਘੇਰੀ। ਕੁਝ ਕੁ ਸਮੇਂ ਵਿਚ ਹੀ ਭੱਜਦੇ ਲੋਕ ਨਜ਼ਰ ਆਏ, ਖੂਨ, ਖਿਲਰੀਆਂ ਜੁੱਤੀਆਂ ਤੇ ਹਾਹਾਕਾਰ। ਕਈ ਦਿਨਾਂ ਬਾਅਦ ਉਸੇ ਉਜੜੀ ਮਸੀਤ 'ਚੋਂ ਇਕ ਮਰਦ ਤੇ ਔਰਤ ਬਿਲਕੁਲ ਸਹਿਮੇ ਹੱਥ ਖੜ੍ਹੇ ਕਰ ਕੇ ਬਾਹਰ ਆਏ ਸਨ ਇਹ ਸਾਰੀਆਂ ਘਟਨਾਵਾਂ ਕੋਲੋਂ ਦੀ ਲੰਘ ਰਹੀਆਂ ਸਨ। ਛੇਵੇਂ ਵਰ੍ਹੇ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਮੈਂ ਲਗਾਤਾਰ ਇਨ੍ਹਾਂ ਤੋਂ ਭੈਭੀਤ ਇਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਸਮਝਣ ਦੀ ਪ੍ਰਕਿਰਿਆ ਵਿਚ ਰਿਹਾ। ਹੁਣ ਤਕ ਸਮਝਣ ਦੀ ਪ੍ਰਕਿਰਿਆ ਵਿਚ ਹਾਂ। ਇਸ ਪ੍ਰਕਿਰਿਆ ਨੇ ਹੀ ਤ੍ਰਾਸਦਿਕ-ਚੇਤਨਾ ਨੂੰ ਬਣਾਇਆ। ਕਰਫਿਊ, ਮਾਰਸ਼ਲ ਲਾਅ ਦੇ ਅਰਥ ਵੀ ਉਦੋਂ ਹੀ ਸਮਝਣੇ ਸ਼ੁਰੂ ਕੀਤੇ ਸਨ। ਕਰਫਿਊ ਜਾਂ ਮਾਰਸ਼ਲ ਲਾਅ ਕੁਝ ਘੰਟਿਆਂ ਲਈ ਖੁੱਲ੍ਹਦਾ ਸੀ ਤਾਂ ਨੇੜੇ ਤੇੜੇ ਦੇ ਬੰਦੇ ਸੋਚਦੇ ਸਨ ਕਿ ਕੁਝ ਸਮੇਂ ਲਈ ਹਰਿਮੰਦਰ ਸਾਹਿਬ ਹੀ ਜਾ ਆਉ। ਮੈਂ ਤੇ ਮੇਰਾ ਵੱਡਾ ਭਰਾ (ਡਾ. ਗੁਰਭਗਤ ਸਿੰਘ) ਵੀ ਹਰਿਮੰਦਰ ਗਏ ਹੋਏ ਸਾਂ। ਜਦੋਂ ਪਰਤੇ ਤਾਂ ਬਾਜ਼ਾਰ ਵੀਰਾਨ ਪਏ ਸਨ। ਕੁਝ ਸੁਝਿਆ ਨਾ ਨੰਗੇ ਪੈਰੀਂ ਘਰ ਵਲ ਤੁਰੀ ਗਏ। ਜਦੋਂ ਐਨ ਆਪਣੇ ਦਰਵਾਜ਼ੇ ਸਾਹਵੇਂ ਪਹੁੰਚੇ ਤਾਂ ਕੰਨਾਂ ਦੇ ਕੋਲੋਂ ਦੀ ਸ਼ੂਕਦੀ ਗੋਲੀ ਲੰਘ ਗਈ। ਸਾਡੇ ਘਰ ਦੇ ਸਾਹਵੇਂ ਇਕ ਮੁਸਲਮਾਨ ਸਿਪਾਹੀ ਦਾ ਪਹਿਰਾ ਰਹਿੰਦਾ ਸੀ। ਉਸਨੇ ਝੱਟ ਦੌੜ ਕੇ ਸਾਨੂੰ ਬਾਹਾਂ ਤੋਂ ਫੜਿਆ ਤੇ ਸਾਨੂੰ ਸਾਡੇ ਦਰਵਾਜ਼ੇ ਦੇ ਅੰਦਰ ਸੁੱਟ ਦਿੱਤਾ। ਅਸੀਂ ਕੁਝ ਪਲ ਭੈਭੀਤ ਠਠੰਬਰੇ ਰਹੇ, ਪਰ ਪਲਾਂ ਬਾਅਦ ਹੀ ਦੇਖਿਆ ਉਸ ਮੁਸਲਮਾਨ ਸਿਪਾਹੀ ਨੂੰ ਪਿੱਛੋਂ ਆਉਂਦੇ ਇਕ ਫੌਜੀ ਟਰੱਕ ਨੇ ਚੁੱਕ ਕੇ ਅੰਦਰ ਸੁੱਟ ਲਿਆ। ਸਾਡਾ ਦਰਵਾਜ਼ਾ ਬੰਦ ਹੋ ਚੁੱਕਾ ਸੀ। ਅੱਜ ਤਕ ਸਿਮਰਿਤੀ 'ਚੋਂ ਇਹ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਗਈ ਕਿ ਉਸ ਮੁਸਲਮਾਨ ਸਿਪਾਹੀ ਨਾਲ ਬਾਅਦ ਵਿਚ ਕੀ ਵਾਪਰੀ। ਉਹ ਕਿੱਥੇ ਗਿਆ। ਤ੍ਰਾਸਦਿਕ-ਚੇਤਨਾ ਕੇਵਲ ਪ੍ਰਤੱਖ ਕਤਲੇਆਮ ਨਾਲ ਹੀ ਨਹੀਂ ਜੁੜੀ ਹੁੰਦੀ, ਇਨ੍ਹਾਂ ਹਾਦਸਿਆਂ ਨਾਲ ਵੀ ਜੁੜੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਜਿਸ ਨਾਲ ਮਨੁੱਖ ਦੇ ਉਹ ਸੁਆਲ ਜੁੜੇ ਹੋਏ ਹਨ, ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਜੁਆਬ ਨਹੀਂ ਲੱਭਦੇ। ਅਸੀਂ ਕੁਝ ਦਿਨਾਂ ਲਈ ਸੜਕ 'ਤੇ ਪੈਂਦੇ ਬੂਹੇ ਵਾਲਾ ਮਕਾਨ ਬਦਲ ਕੇ ਇਕ ਬੰਦ ਗਲੀ ਵਿਚ ਚਲੇ ਗਏ। ਹੋਰਾਂ ਵੀ ਕਈਆਂ ਨੂੰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਘਰਾਂ ਵਾਲਿਆਂ ਨੇ ਥਾਂ ਦਿੱਤੀ ਹੋਈ ਸੀ। ਕੁਝ ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਦੇ ਘਰ ਖਾਲੀ ਸਨ, ਉਹ ਹੋਰ ਥਾਵਾਂ 'ਤੇ ਚਲੇ ਗਏ ਸਨ। ਇਥੇ ਗਲੀ 'ਚ ਕੁਝ ਬੰਦੇ ਤਾਂ ਇਕ ਕੋਨੇ 'ਚ ਸਾਰਾ ਦਿਨ ਭੰਗ ਘੋਟਦੇ ਸ਼ਰਦਾਈ ਬਣਾਉਂਦੇ ਰਹਿੰਦੇ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਬਹੁਤਾ ਧਿਆਨ ਨਹੀਂ ਸੀ ਕਿ ਬਾਹਰ ਕੀ ਵਾਪਰ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਅਸੀਂ ਇਕ ਬਜ਼ੁਰਗ ਨਾਲ ਗਲੀ ਦੇ ਇਕ ਕੋਨੇ ਵਿਚ ਖੁੱਤੀਆਂ ਪੁੱਟ ਕੇ ਬੰਟਿਆਂ ਨਾਲ ਖੇਡਦੇ ਰਹਿੰਦੇ। ਉਸਨੇ ਝੱਗੀ 'ਤੇ ਕਛਹਿਰਾ ਪਾਇਆ ਹੁੰਦਾ, ਸਿਰ 'ਤੇ ਵਾਲਾਂ ਦਾ ਜੂੜਾ ਕੀਤਾ ਹੁੰਦਾ, ਅਕਸਰ ਨੰਗੇ ਸਿਰ ਹੀ ਹੁੰਦਾ। ਅਸੀਂ ਉਸਨੂੰ ਬਾਊ ਜੀ ਆਖਦੇ। ਉਹ ਸਾਰੇ ਬੱਚਿਆਂ ਨੂੰ ਹੀ ਬਹੁਤ ਪਿਆਰ ਕਰਦਾ। ਬੱਚਿਆਂ ਲਈ ਬੰਟੇ ਆਪ ਲਿਆਉਂਦਾ। ਸਾਨੂੰ ਉਦੋਂ ਇਹ ਨਹੀਂ ਸੀ ਪਤਾ ਇਹ ਬਜ਼ੁਰਗ ਹੀ ਪੰਜਾਬੀ ਨਾਵਲਕਾਰ ਨਾਨਕ ਸਿੰਘ ਹੈ। ਇਕ ਦਿਨ ਇਕ ਗੁਆਂਢੀ ਮੁੰਡਾ ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਲਈ ਥੱਲੇ ਰੱਸਾ ਲਟਕਾ ਕੇ ਦੁੱਧ ਲੈ ਰਿਹਾ ਸੀ। ਅਚਾਨਕ ਹੀ ਪਤਾ ਨਹੀਂ ਕਿਥੋਂ ਗੋਲੀ ਆਈ ਤੇ ਪਲਾਂ ਛਿਣਾਂ 'ਚ ਉਸ ਦੀ ਲਾਸ਼ ਆ ਡਿੱਗੀ। ਗਲੀ ਦੇ ਮਜ਼ਬੂਤ ਲੋਹੇ ਦੇ ਗੇਟ ਨੂੰ ਚੀਰ ਕੇ ਅੰਦਰ ਕਈ ਕਿਸਮ ਦੀਆਂ ਅਫਵਾਹਾਂ ਪਹੁੰਚ ਜਾਂਦੀਆਂ ਸਨ। ਅਫਵਾਹ ਪਹੁੰਚੀ ਕਿ ਲਾਹੌਰ ਤੋਂ ਸਿੱਖਾਂ-ਹਿੰਦੂਆਂ ਦੀਆਂ ਲਾਸ਼ਾਂ ਦੀ ਭਰੀ ਇਕ ਗੱਡੀ ਆਈ ਹੈ ਤੇ ਖਾਲਸਾ ਕਾਲਜ ਦੇ ਮੁੰਡਿਆਂ ਨੇ ਲਾਹੌਰ ਨੂੰ ਜਾਂਦੀ ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਦੀ ਇਕ ਗੱਡੀ ਰੋਕ ਲਈ ਹੈ ਤੇ ਸਟੇਸ਼ਨ 'ਤੇ ਲਾਸ਼ਾਂ ਦੇ ਢੇਰ ਲਾ ਦਿੱਤੇ ਹਨ। ਬਾਊ ਜੀ (ਨਾਨਕ ਸਿੰਘ) ਉਸ ਦਿਨ ਸਾਰਾ ਦਿਨ ਪਾਗਲਾਂ ਵਾਂਗ ਗਲੀ ਦੇ ਇਕ ਸਿਰੇ ਤੋਂ ਦੂਜੇ ਸਿਰੇ ਤਕ ਦੌੜੇ ਫਿਰਦੇ ਰਹੇ ਸਨ। ਬੱਚਿਆਂ ਨਾਲ ਵੀ ਨਹੀਂ ਬੋਲੇ। ਵਾਰ-ਵਾਰ ਆਪਣੇ ਕੱਪੜੇ ਪਾੜ ਰਹੇ ਸਨ। ਗੇਟ ਤੋਂ ਬਾਹਰ ਭੱਜਣਾ ਚਾਹੁੰਦੇ ਸਨ। ਪਰ ਵੱਡਾ ਗੇਟ ਹਰ ਸਮੇਂ ਚੰਗੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਬੰਦ ਹੁੰਦਾ। ਕਦੇ ਹੀ ਖੁੱਲ੍ਹਦਾ, ਜਦੋਂ ਕਰਫਿਊ ਵਿਚ ਕੁਝ ਸਮੇਂ ਲਈ ਢਿੱਲ ਦਿੱਤੀ ਜਾਂਦੀ। ਇਕ ਦਿਨ ਅਚਾਨਕ ਨੇੜੇ ਹੀ ਦੁਪਹਿਰੇ ਕਿਤੋਂ ਬਹੁਤ ਉਚੀ ਬੰਬ ਧਮਾਕੇ ਦੀ ਆਵਾਜ਼ ਆਈ। ਹੌਲੀ-ਹੌਲੀ ਪਤਾ ਲੱਗਾ ਨੇੜੇ ਹੀ ਇਕ ਮਕਾਨ ਬੰਬ ਨਾਲ ਉਡ ਗਿਆ ਹੈ ਤੇ ਦੋ ਬੰਦੇ ਵੀ ਮਾਰੇ ਗਏ ਹਨ। ਉਹ ਬੰਬ ਬਣਾ ਰਹੇ ਸਨ। (ਕਈ ਵਰ੍ਹਿਆਂ ਬਾਅਦ ਪਤਾ ਲੱਗਾ ਇਹ ਡਾ. ਗੁਰਬਖਸ਼ ਸਿੰਘ ਫਰੈਂਕ ਦੇ ਭਰਾ ਸਨ ਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਹੀ ਘਰ ਸੀ।) ਕੁਝ ਚਿਰ ਬਾਅਦ ਅਸੀਂ ਫਿਰ ਵਾਪਸ ਆਪਣੇ ਘਰ ਆ ਗਏ ਤਾਂ ਕਾਫਲਿਆਂ ਦੇ ਦਿਨਾਂ ਵਿਚ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਤੋਂ ਆਉਂਦੇ ਮੀਲਾਂ ਲੰਮੇ ਕਾਫਲੇ ਦੇਖਣ ਲਈ ਜਾਂਦੇ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਲਈ ਲੰਗਰ ਤਿਆਰ ਕਰਕੇ ਵੀ ਲਿਜਾਂਦੇ, ਪਰ ਇੰਨਾ ਯਾਦ ਹੈ ਕਿ ਇਕ ਗੁਰਦੁਆਰੇ ਦੇ ਜੰਗਲੇ ਵਿਚੋਂ ਹੀ ਸਾਨੂੰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਦੇਖਣ ਦੀ ਆਗਿਆ ਸੀ। ਅਸੀਂ ਸੜਕ 'ਤੇ ਨਹੀਂ ਜਾ ਸਕਦੇ ਸਾਂ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਚਿਹਰਿਆਂ ਦੀ ਉਦਾਸੀ, ਵੀਰਾਨਗੀ ਤੇ ਤਰਾਸਦੀ ਦੀ ਪੈੜ ਅੱਜ ਵੀ ਮਨ ਤੇ ਉਵੇਂ ਦੀ ਉਵੇਂ ਹੈ। ਜਦੋਂ ਵੀ ਇਤਿਹਾਸ ਦੇ ਵਰਕੇ ਤੇ ਕਿਤੇ ਵੀ ਕਿਧਰੇ ਕਾਫਲਿਆਂ ਦੀ ਵਿਥਿਆ ਪੜ੍ਹਦਾ ਹਾਂ ਤਾਂ ਉਹ ਤ੍ਰਾਸਦਿਕ ਬਿੰਬ ਉਭਰ ਆਉਂਦੇ ਹਨ। ਬਾਅਦ ਵਿਚ ਜਦੋਂ ਮੈਂ ਨਾਨਕ ਸਿੰਘ ਦੇ ਨਾਵਲ ਪੜ੍ਹੇ ਤਾਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਸੰਤਾਲੀ ਦਾ ਉਹ ਬਿੰਬ ਉਭਰ ਆਉਂਦਾ। ਜਦੋਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਨਾਵਲ 'ਖੂਨ ਦੇ ਸੋਹਿਲੇ', 'ਅੱਗ ਦੀ ਖੇਡ' ਜਾਂ ਹੋਰ ਉਹ ਨਾਵਲ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਸਰੋਕਾਰ ਸੰਤਾਲੀ ਨਾਲ ਹੈ ਪੜ੍ਹੇ ਤਾਂ ਗਲੀ ਵਿਚ ਪਾਗਲਾਂ ਵਾਂਗ ਦੌੜਦਾ ਨਾਨਕ ਸਿੰਘ ਅੱਖਾਂ ਅੱਗੇ ਆ ਜਾਂਦਾ। ਕਰਤਾਰ ਸਿੰਘ ਦੁੱਗਲ, ਅੰਮ੍ਰਿਤਾ, ਨਰੂਲਾ ਤੇ ਹੋਰ ਸਾਹਿਤਕਾਰਾਂ ਦੀਆਂ ਲਿਖਤਾਂ ਸੰਤਾਲੀ ਬਾਰੇ ਜਦੋਂ ਵੀ ਪੜ੍ਹੀਆਂ ਤਾਂ ਇਸ ਯਥਾਰਥ ਨੂੰ ਪੇਸ਼ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਸਾਹਿਤਕ ਪ੍ਰਤਿਮਾਨਾਂ ਦਾ ਨਿਰਣਾ ਕਰਨ ਲਈ ਜੂਝਣਾ ਪੈਂਦਾ, ਪਰ ਇਹ ਜੂਝਦਿਆਂ ਸਿਮਰਤੀਆਂ ਤੇ ਚੇਤਨਾ ਦੀਆਂ ਜੜ੍ਹਾਂ ਤਕ ਜਾਣਾ ਪੈਂਦਾ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਪ੍ਰਕਿਰਿਆ ਛੇਵੇਂ ਵਰ੍ਹੇ ਤੋਂ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋਈ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਿਮਰਿਤੀਆਂ ਤੋਂ ਭੈਭੀਤ ਬਾਅਦ ਵਿਚ ਮੈਂ ਬਹੁਤ ਦੇਰ ਅੰਮ੍ਰਿਤਸਰ ਨਾ ਗਿਆ। ਫਿਰ ਜਦੋਂ ਵੀ ਗਿਆ, ਉਸ ਪਾਸੇ ਨਾ ਗਿਆ, ਜਿਥੇ ਇਹ ਸਾਰਾ ਕੁਝ ਮਨ ਵਿਚ ਸਥਿਤ ਹੋਇਆ ਸੀ। ਮੈਂ ਜੋਗਿੰਦਰ ਕੈਰੋਂ ਨੂੰ ਕਈ ਵਾਰ ਕਹਿੰਦਾ ''ਜ਼ਰਾ ਉਸ ਪਾਸਿਉਂ ਲੰਘ ਚੱਲੀਏ'', ਪਰ ਨਾਲ ਹੀ ਸੋਚਦਾ, ਚੰਗਾ ਹੈ ਇਹ ਉਸ ਪਾਸੇ ਨਾ ਜਾਏ ਤੇ ਕਿਸੇ ਕਾਰਨ ਗੱਲ ਟਲ ਹੀ ਜਾਂਦੀ। ਕਦੇ ਰਾਹ 'ਚ ਪ੍ਰਮਿੰਦਰਜੀਤ ਮਿਲ ਗਿਆ, ਕਦੇ ਅਮਰੀਕ ਅਮਨ ਤੇ ਕਦੇ ਕੋਈ ਹੋਰ ਦੋਸਤ। 1984 ਵਿਚ 'ਬਲਿਊ ਸਟਾਰ' ਅਪ੍ਰੇਸ਼ਨ ਨੇ ਫਿਰ ਉਸ ਨੇੜ ਤੇੜ ਦੇ ਇਲਾਕੇ ਨੂੰ ਹਿਲਾ ਕੇ ਰੱਖ ਦਿੱਤਾ। ਦੋਸਤ ਦੱਸਦੇ ਇਸ ਸੜਕ ਤੋਂ ਲਾਸ਼ਾਂ ਦੇ ਢੇਰ ਜਾਂਦੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਆਮ ਦੇਖੇ ਹਨ। ਘਰਾਂ ਤੋਂ ਬਾਹਰ ਨਿਕਲਣਾ ਕਰਫਿਊ ਕਰ ਕੇ ਮੁਸ਼ਕਲ ਹੁੰਦਾ ਸੀ ਪਰ ਬਾਰੀਆਂ, ਝੀਥਾਂ 'ਚੋਂ ਸਭ ਕੁਝ ਦੇਖਿਆ ਜਾ ਸਕਦਾ ਸੀ। ਇਹ ਸੁਣਦਿਆਂ ਹੀ ਮੇਰੀ ਸਿਮਰਿਤੀ 'ਚ ਸੰਤਾਲੀ ਤੋਂ 84 ਤਕ ਇਕ ਪੁਲ ਬਣਨ ਲਗ ਪੈਂਦਾ। ਤਰਾਸਦੀ ਦੇ ਬਿੰਬ ਉਭਰਨ ਲੱਗਦੇ। ਚੇਤਨਾ ਵਿਸ਼ਲੇਸ਼ਣ ਕਰਨ ਲਈ ਵੀ ਕਹਿੰਦੀ। ਜਦੋਂ ਵੀ 1984 ਜਾਂ ਇਸ ਸੰਕਟ ਨਾਲ ਸਬੰਧਤ ਸਾਹਿਤ ਦਾ ਅਧਿਐਨ ਕੀਤਾ, ਚੇਤਨਾ ਦੀ ਪ੍ਰਕਿਰਿਆ ਸੰਤਾਲੀ ਤਕ ਹੀ ਪਹੁੰਚ ਜਾਂਦੀ ਰਹੀ। ਭਾਵੇਂ ਦੋਨਾਂ ਨਾਲ ਜੁੜੇ ਅਨੇਕਾਂ ਸੁਆਲ ਵੱਖਰੇ ਹਨ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਜੁਆਬ ਅਜੇ ਵੀ ਲੱਭਣ ਦਾ ਯਤਨ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹਾਂ। ਨਾ ਹੀ ਇਹ ਜੁਆਬ ਮਾਰਕਸਵਾਦੀ-ਚੇਤਨਾ ਨੇ ਦਿੱਤੇ ਹਨ ਤੇ ਨਾ ਹੀ ਪ੍ਰਤੱਖ ਹੋਏ ਆਧੁਨਿਕ ਤੇ ਪਰਾ-ਆਧੁਨਿਕ ਸਿਧਾਂਤਾਂ ਨੇ ਪਰ ਇਸ ਚੇਤਨਾ ਵਿਚ ਵਿਚਰਦਿਆਂ ਜਦੋਂ ਵੀ ਜੁਆਬ ਲੱਭੇ ਸੰਤਾਲੀ ਦੀ ਤਰਾਸਦਿਕ ਚੇਤਨਾ ਉਸ ਪ੍ਰਕਿਰਿਆ ਵਿਚ ਸ਼ਾਮਲ ਰਹੇਗੀ।
Wednesday, January 19, 2011
ਮੈਂ ਨਾਸਤਿਕ ਕਿਉਂ ਹਾਂ? - ਭਗਤ ਸਿੰਘ
ਨਵੀਂ ਸਮੱਸਿਆ ਖੜ੍ਹੀ ਹੋ ਗਈ ਹੈ। ਕੀ ਸਰਬਸ਼ਕਤੀਮਾਨ, ਸਰਬਵਿਆਪਕ ਤੇ ਸਰਬਹਿਤਕਾਰੀ ਰੱਬ ਦੀ ਹੋਂਦ ਵਿਚ ਮੇਰੀ ਅਵਿਸ਼ਵਾਸ ਮੇਰੇ ਅਹੰਕਾਰ ਕਰਕੇ ਹੈ? ਮੈਨੂੰ ਕਦੇ ਚਿੱਤ-ਚੇਤਾ ਵੀ ਨਹੀਂ ਸੀ ਕਿ ਮੈਨੂੰ ਕਿਸੇ ਵੇਲੇ ਇਹੋ-ਜਿਹੀ ਸਮੱਸਿਆ ਦਾ ਸਾਹਮਣਾ ਕਰਨਾ ਪਵੇਗਾ। ਅਪਣੇ ਕੁਝ ਦੋਸਤਾਂ ਨਾਲ਼ ਗੱਲ ਕਰਕੇ ਪਤਾ ਲੱਗਾ ਹੈ ਕਿ ਮੇਰੇ ਕੁਝ ਦੋਸਤਾਂ ਨੇ (ਜੋ ਦੋਸਤੀ ਦਾ ਇਹ ਦਾਅਵਾ ਗ਼ਲਤ ਨਾ ਹੋਵੇ) ਮੇਰੇ ਨਾਲ਼ ਥੋੜ੍ਹੇ ਜਿਹੇ ਮੇਲ਼ਜੋਲ ਮਗਰੋਂ ਹੀ ਇਹ ਸਿੱਟਾ ਕੱਢ ਲਿਆ ਕਿ ਮੇਰਾ ਰੱਬ ਦੀ ਹੋਂਦ ਤੋਂ ਮੁਨਕਰ ਹੋਣਾ ਮੇਰੀ ਹਿਮਾਕਤ ਹੈ ਅਤੇ ਇਹ ਵੀ ਕਿ ਮੇਰਾ ਅਹੰਕਾਰ ਹੀ ਮੇਰੇ ਅਵਿਸ਼ਵਾਸ ਦਾ ਕਾਰਣ ਹੈ। ਫਿਰ ਵੀ ਸਮੱਸਿਆ ਤਾਂ ਗੰਭੀਰ ਹੀ ਹੈ। ਮੈਂ ਇਨ੍ਹਾਂ ਇਨਸਾਨੀ ਵਤੀਰਿਆਂ ਤੋਂ ਉੱਪਰ ਹੋਣ ਦਾ ਦਾਅਵਾ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ। ਮੈਂ ਵੀ ਆਖ਼ਿਰ ਇਨਸਾਨ ਹਾਂ, ਇਸ ਤੋਂ ਵੱਧ ਕੁਝ ਨਹੀਂ। ਤੇ ਨਾ ਹੀ ਕੋਈ ਇਸ ਤੋਂ ਵੱਧ ਹੋਣ ਦਾ ਦਾਅਵਾ ਕਰ ਸਕਦਾ ਹੈ। ਮੇਰੇ ਵਿਚ ਵੀ ਕਮਜ਼ੋਰੀ ਹੈ। ਅਹੰਕਾਰ ਮੇਰੇ ਸੁਭਾਅ ਦਾ ਵੀ ਅੰਗ ਹੈ। ਮੇਰੇ ਅਪਣੇ ਸਾਥੀ ਮੈਨੂੰ ਤਾਨਾਸ਼ਾਹ ਕਹਿੰਦੇ ਰਹੇ ਹਨ। ਇੱਥੋਂ ਤਕ ਕਿ ਮੇਰਾ ਦੋਸਤ ਬੀ.ਕੇ. ਦੱਤ ਵੀ ਕਦੀ-ਕਦੀ ਮੈਨੂੰ ਤਾਨਾਸ਼ਾਹ ਕਹਿੰਦਾ ਹੁੰਦਾ ਸੀ। ਕਈ ਮੌਕਿਆਂ 'ਤੇ ਮੈਨੂੰ ਹੈਂਕੜਬਾਜ਼ ਵੀ ਕਿਹਾ ਗਿਆ। ਕੁਝ ਦੋਸਤ ਗੰਭੀਰ ਦੋਸ਼ ਲਾਉਂਦੇ ਰਹੇ ਕਿ ਮੈਂ ਦੂਜਿਆਂ ਤੇ ਅਪਣੀ ਰਾਇ ਮੜ੍ਹਦਾ ਹਾਂ ਅਤੇ ਅਪਣੀ ਗੱਲ ਮੰਨਵਾ ਲੈਂਦਾ ਹਾਂ। ਮੈਂ ਇਨਕਾਰ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ ਕਿ ਇਹ ਗੱਲ ਕਿਸੇ ਹੱਦ ਤਕ ਸਹੀ ਹੈ। ਇਸ ਨੂੰ ਅਹੰਵਾਦ ਵੀ ਕਿਹਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ। ਜਿੱਥੋਂ ਤਕ ਸਮਾਜ ਦੀਆਂ ਰੂੜ੍ਹੀਵਾਦੀ ਰਵਾਇਤਾਂ ਦੇ ਵਿਰੋਧ ਦਾ ਸਵਾਲ ਹੈ, ਮੈਂ ਅਹੰਕਾਰੀ ਹਾਂ। ਪਰ ਇਹ ਜ਼ਾਤੀ ਗੱਲ ਨਹੀਂ। ਇਹ ਅਪਣੇ ਵਿਚਾਰਾਂ 'ਤੇ ਮਾਣ ਵਾਲ਼ੀ ਗੱਲ ਹੈ; ਇਹਨੂੰ ਅਹੰਕਾਰ ਨਹੀਂ ਕਿਹਾ ਜਾ ਸਕਦਾ। ਅਭਿਮਾਨ, ਜਾਂ ਕਹਿ ਲਓ ਅਹੰਕਾਰ ਕਿਸੇ ਮਨੁੱਖ ਵਿਚ ਲੋੜੋਂ ਵੱਧ ਅਪਣੇ ਆਪ ਦਾ ਪ੍ਰਗਟਾਵਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਕੀ ਮੈਂ ਬੇਲੋੜੇ ਮਾਣ ਕਰਕੇ ਨਾਸਤਿਕ ਬਣਿਆਂ ਹਾਂ ਜਾਂ ਇਸ ਵਿਸ਼ੇ ਤੇ ਡੂੰਘਾ ਮੁਤਾਲਿਆ ਕਰਨ ਮਗਰੋਂ ਅਤੇ ਗੰਭੀਰ ਸੋਚ-ਵਿਚਾਰ ਮਗਰੋਂ ਨਾਸਤਿਕ ਬਣਿਆਂ ਹਾਂ? ਇਹ ਸਵਾਲ ਹੈ, ਜਿਸ ਬਾਰੇ ਮੈਂ ਇੱਥੇ ਚਰਚਾ ਕਰਨਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹਾਂ। ਸਭ ਤੋਂ ਪਹਿਲੇ ਇਹ ਨਬੇੜਾ ਕਰ ਲਈਏ ਕਿ ਅਭਿਮਾਨ ਤੇ ਅਹੰਕਾਰ ਦੋ ਅਲੱਗ-ਅਲੱਗ ਗੱਲਾਂ ਹੁੰਦੀਆਂ ਹਨ।
ਮੈਨੂੰ ਇਸ ਗੱਲ ਦੀ ਹੁਣ ਤਕ ਸਮਝ ਨਹੀਂ ਆਈ ਕਿ ਬੇਲੋੜਾ ਮਾਣ ਜਾਂ ਫੋਕਾ ਅਭਿਮਾਨ ਮਨੁੱਖ ਲਈ ਆਸਤਿਕਤਾ ਦੇ ਰਾਹ ਦਾ ਰੋੜਾ ਕਿਵੇਂ ਬਣ ਸਕਦੇ ਹਨ? ਮੈਂ ਕਿਸੇ ਸੱਚੀਂਮੁੱਚੀਂ ਦੇ ਮਹਾਨ ਵਿਅਕਤੀ ਦੀ ਮਹਾਨਤਾ ਤੋਂ ਮੁਨਕਰ ਹੋ ਸਕਦਾ ਹਾਂ, ਬਸ਼ਰਤੇ ਕਿ ਮੈਨੂੰ ਐਵੇਂ ਰਾਹ ਜਾਂਦੇ ਹੀ ਸ਼ੁਹਰਤ ਹੱਥ ਲੱਗ ਗਈ ਹੋਵੇ ਜਾਂ ਮਹਾਨ ਹੋਣ ਲਈ ਸੱਚੀਮੁੱਚੀ ਲੋੜੀਂਦੇ ਗੁਣ ਹੀ ਮੇਰੇ ਵਿਚ ਨਾ ਹੋਣ। ਇਹ ਗੱਲ ਸਮਝ ਪੈਂਦੀ ਹੈ, ਪਰ ਇਹ ਕਿਵੇਂ ਹੋ ਸਕਦਾ ਹੈ ਕਿ ਕੋਈ ਆਸਤਿਕ ਅਪਣੇ ਅਹੰਕਾਰ ਕਰਕੇ ਨਾਸਤਿਕ ਹੋ ਜਾਵੇ? ਸਿਰਫ਼ ਦੋ ਗੱਲਾਂ ਹੋ ਸਕਦੀਆਂ ਹਨ; ਜਾਂ ਤਾਂ ਮਨੁੱਖ ਖ਼ੁਦ ਨੂੰ ਖ਼ੁਦਾ ਦਾ ਰਕੀਬ ਸਮਝਣਾ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦੇਵੇ ਜਾਂ ਫੇਰ ਖ਼ੁਦ ਹੀ ਖ਼ੁਦਾ ਬਣ ਬੈਠੇ। ਦੋਹਾਂ ਹਾਲਤਾਂ ਵਿਚ ਉਹ ਸਹੀ ਨਾਸਤਿਕ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦਾ। ਪਹਿਲੀ ਸੂਰਤ ਵਿਚ ਉਹ ਰਕੀਬ ਦੀ ਹਾਲਤ ਤੋਂ ਮੁਨਕਰ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ। ਦੂਸਰੀ ਹਾਲਤ ਵਿਚ ਉਹ ਸਚੇਤ ਸੱਤਾ ਦੀ ਹੋਂਦ ਨੂੰ ਮੰਨਦਾ ਹੈ, ਜੋ ਪਰਦੇ ਪਿੱਛਿਉਂ ਸਾਰੀ ਪ੍ਰਕ੍ਰਿਤੀ ਨੂੰ ਚਲਾ ਰਹੀ ਹੈ। ਇਸਦੀ ਸਾਡੇ ਲਈ ਕੋਈ ਅਹਿਮੀਅਤ ਨਹੀਂ ਕਿ ਉਹ ਖ਼ੁਦ ਨੂੰ ਖ਼ੁਦਾ ਸਮਝਦਾ ਹੈ ਜਾਂ ਖੁਦਾ ਨੂੰ ਖ਼ੁਦ ਤੋਂ ਅਲੱਗ ਕੋਈ ਪਰਮਸੱਤਾ ਮੰਨਦਾ ਹੈ। ਅਸਲ ਨੁਕਤਾ ਇਹ ਹੈ। ਦੋਹਾਂ ਹਾਲਤਾਂ ਵਿਚ ਉਸਦਾ ਰੱਬ ਵਿਚ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਕਾਇਮ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ। ਉਹ ਕਿਸੇ ਵੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਨਾਸਤਿਕ ਨਹੀਂ। ਇਹੋ ਮੈਂ ਆਖਣਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹਾਂ। ਮੈਂ ਉਪਰਲੀਆਂ ਦੋਹਵਾਂ ਕਿਸਮਾਂ ਵਿਚ ਨਹੀਂ ਆਉਂਦਾ। ਮੈਂ ਤਾਂ ਕਿਸੇ ਵੀ ਸਰਬਸ਼ਕਤੀਮਾਨ ਜਾਂ ਸਰਵੋਪਰੀ ਸੱਤਾ ਦੀ ਹੋਂਦ ਤੋਂ ਮੂਲੋਂ ਹੀ ਇਨਕਾਰੀ ਹਾਂ। ਇੰਜ ਕਿਉਂ ਹੈ? ਮੈਂ ਇਹਦੇ ਬਾਰੇ ਅੱਗੇ ਚੱਲ ਕੇ ਵਿਚਾਰ-ਚਰਚਾ ਕਰਾਂਗਾ।
ਇਥੇ ਮੈਂ ਇਹ ਗੱਲ ਸਪੱਸ਼ਟ ਕਰ ਦੇਣੀ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹਾਂ ਕਿ ਮੈਂ ਅਹੰਕਾਰ ਕਰਕੇ ਨਾਸਤਿਕਤਾ ਦੇ ਸਿਧਾਂਤ ਦਾ ਧਾਰਨੀ ਨਹੀਂ ਹੋਇਆ। ਨਾ ਤਾਂ ਮੈਂ ਖ਼ੁਦਾ ਦਾ ਰਕੀਬ ਹਾਂ, ਨਾ ਕੋਈ ਰੱਬੀ ਅਵਤਾਰ ਤੇ ਨਾ ਹੀ ਆਪ ਪ੍ਰਮਾਤਮਾ ਹਾਂ। ਇਕ ਗੱਲ ਤਾਂ ਪੱਕੀ ਹੈ ਕਿ ਅਹੰਕਾਰ ਕਾਰਣ ਮੈਂ ਇਹ ਸੋਚਣੀ ਨਹੀਂ ਅਪਣਾਈ। ਇਸ ਇਲਜ਼ਾਮ ਦਾ ਜਵਾਬ ਦੇਣ ਲਈ ਮੈਂ ਤੱਥ ਬਿਆਨ ਕਰਦਾ ਹਾਂ। ਮੇਰੇ ਦੋਸਤ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਦਿੱਲੀ ਬੰਬ ਤੇ ਲਾਹੌਰ ਸਾਜ਼ਿਸ਼ ਕੇਸਾਂ ਦੌਰਾਨ ਮੈਨੂੰ ਬੜੀ ਬੇਲੋੜੀ ਸ਼ੁਹਰਤ ਮਿਲ਼ੀ, ਉਸ ਕਾਰਣ ਮੇਰੇ ਵਿਚ ਫੋਕੀ ਸ਼ਾਨ ਆ ਗਈ। ਆਓ, ਆਪਾਂ ਦੇਖੀਏ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਕਥਨ ਕਿੱਥੋਂ ਤਕ ਠੀਕ ਹਨ? ਪਿੱਛੇ ਜਿਹੇ ਵਾਪਰੀਆਂ ਘਟਨਾਵਾਂ ਕਾਰਣ ਮੈਂ ਨਾਸਤਿਕ ਨਹੀਂ ਹੋਇਆ। ਮੈਂ ਤਾਂ ਓਦੋਂ ਹੀ ਰੱਬ ਨੂੰ ਮੰਨਣੋਂ ਹਟ ਗਿਆ ਸੀ, ਜਦ ਮੈਂ ਨਾਮਾਲੂਮ ਨੌਜਵਾਨ ਸੀ; ਜਦ ਮੇਰੇ ਉਪਰੋਕਤ ਦੋਸਤ ਰੱਬ ਦੀ ਹੋਂਦ ਤੋਂ ਸਚੇਤ ਵੀ ਨਹੀਂ ਸਨ। ਘੱਟੋ-ਘੱਟ ਕਾਲਜ ਦਾ ਕੋਈ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਏਨਾ ਅਭਿਮਾਨੀ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦਾ ਕਿ ਉਹ ਨਾਸਤਿਕ ਹੋ ਜਾਵੇ। ਭਾਵੇਂ ਕੁਝ ਪ੍ਰੋਫ਼ੈਸਰ ਮੈਨੂੰ ਪਸੰਦ ਕਰਦੇ ਸਨ ਤੇ ਕੁਝ ਨਾਪਸੰਦ, ਪਰ ਮੈਂ ਕਦੇ ਵੀ ਮਿਹਨਤੀ ਮੁੰਡਾ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਅਹੰਕਾਰ ਵਰਗੇ ਵਿਚਾਰ ਰੱਖਣ ਦਾ ਮੈਨੂੰ ਕੋਈ ਮੌਕਾ ਨਹੀਂ ਮਿਲ਼ਿਆ ਸੀ। ਮੈਂ ਬਹੁਤ ਸੰਙਾਊ ਸੁਭਾਅ ਵਾਲ਼ਾ ਤੇ ਭਵਿੱਖ ਬਾਰੇ ਉਲ਼ਝਿਆ ਰਹਿਣ ਵਾਲ਼ਾ ਮੁੰਡਾ ਸੀ ਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਿਨਾਂ ਵਿਚ ਮੈਂ ਪੂਰਾ ਨਾਸਤਿਕ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਮੈਂ ਅਪਣੇ ਬਾਬਾ ਜੀ ਦੇ ਅਸਰ ਹੇਠ ਵੱਡਾ ਹੋਇਆ ਸੀ ਤੇ ਉਹ ਪੱਕੇ ਆਰੀਆ ਸਮਾਜੀ ਸਨ। ਕੋਈ ਆਰੀਆ ਸਮਾਜੀ ਹੋਰ ਤਾਂ ਸਭ ਕੁਝ ਹੋ ਸਕਦਾ ਹੈ, ਪਰ ਨਾਸਤਿਕ ਨਹੀਂ। ਮੈਂ ਅਪਣੀ ਪ੍ਰਾਇਮਰੀ ਦੀ ਪੜ੍ਹਾਈ ਮੁਕਾ ਕੇ ਲਾਹੌਰ ਦੇ ਡੀ.ਏ.ਵੀ. ਸਕੂਲ ਵਿਚ ਦਾਖ਼ਿਲ ਹੋ ਗਿਆ ਤੇ ਇਹਦੇ ਬੋਰਡਿੰਗ ਹਾਊਸ ਵਿਚ ਪੂਰਾ ਇਕ ਸਾਲ ਰਿਹਾ। ਉਥੇ ਸਵੇਰ ਅਤੇ ਤ੍ਰਿਕਾਲ-ਸੰਧਿਆ ਦੀਆਂ ਪ੍ਰਾਰਥਨਾਵਾਂ ਤੋਂ ਛੁੱਟ ਮੈਂ ਘੰਟਿਆਂ-ਬੱਧੀ ਗਾਇਤ੍ਰੀ ਮੰਤ੍ਰ ਦਾ ਜਾਪ ਕਰਦਾ ਸੀ। ਮੈਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਿਨਾਂ ਵਿਚ ਪੱਕਾ ਸ਼ਰਧਾਲੂ ਸੀ। ਫੇਰ ਮੈਂ ਅਪਣੇ ਪਿਤਾ ਜੀ ਨਾਲ਼ ਰਹਿਣ ਲਗ ਪਿਆ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਧਾਰਮਿਕ ਦ੍ਰਿਸ਼ਟੀਕੋਣ ਉਦਾਰ ਸੀ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀਆਂ ਸਿੱਖਿਆਵਾਂ ਸਦਕਾ ਹੀ ਮੈਂ ਅਪਣੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਆਜ਼ਾਦੀ ਦੇ ਆਦਰਸ਼ ਨੂੰ ਅਰਪੀ। ਪਰ ਉਹ ਨਾਸਤਿਕ ਨਹੀਂ ਸਨ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਰੱਬ ਵਿਚ ਪੱਕਾ ਅਕੀਦਾ ਸੀ। ਉਹ ਮੈਨੂੰ ਹਰ ਰੋਜ਼ ਪ੍ਰਾਰਥਨਾ ਕਰਨ ਲਈ ਕਹਿੰਦੇ ਹੁੰਦੇ ਸਨ। ਸੋ ਮੇਰੀ ਪਰਵਰਿਸ਼ ਇਸ ਢੰਗ ਨਾਲ਼ ਹੋਈ। ਨਾਮਿਲਵਰਤਣ ਦੇ ਦਿਨਾਂ ਵਿਚ ਮੈਂ ਨੈਸ਼ਨਲ ਕਾਲਜ ਵਿਚ ਦਾਖ਼ਿਲ ਹੋ ਗਿਆ। ਉਥੇ ਹੀ ਮੈਂ ਸਾਰੀਆਂ ਧਾਰਮਿਕ ਸਮੱਸਿਆਵਾਂ ਬਾਰੇ, ਇੱਥੋਂ ਤਕ ਕਿ ਰੱਬ ਬਾਰੇ ਵੀ ਖੁੱਲ੍ਹੇ ਤੌਰ 'ਤੇ ਸੋਚਣਾ ਤੇ ਇੰਨਾ ਬਾਰੇ ਵਿਚਾਰ-ਚਰਚਾ ਕਰਨੀ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦਿੱਤੀ। ਪਰ ਮੇਰਾ ਓਦੋਂ ਵੀ ਰੱਬ ਵਿਚ ਪੱਕਾ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਸੀ। ਓਦੋਂ ਮੈਂ ਦਾੜ੍ਹੀ-ਕੇਸ ਰੱਖ ਲਏ ਸੀ, ਪਰ ਤਾਂ ਵੀ ਮੈਂ ਸਿੱਖੀ ਦੇ ਮਿਥਿਹਾਸ ਜਾਂ ਸਿਧਾਂਤ ਜਾਂ ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਧਰਮ ਵਿਚ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਨਾ ਕਰ ਸਕਿਆ। ਪਰ ਰੱਬ ਦੀ ਹੋਂਦ ਵਿਚ ਮੇਰਾ ਪੱਕਾ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਸੀ।
ਫੇਰ ਮੈਂ ਇਨਕਲਾਬੀ ਪਾਰਟੀ ਵਿਚ ਸ਼ਾਮਿਲ ਹੋ ਗਿਆ। ਮੈਂ ਜਿਸ ਪਹਿਲੇ ਆਗੂ ਨੂੰ ਮਿਲਿਆ, ਉਹ ਰੱਬ ਦੀ ਹੋਂਦ ਤੋਂ ਇਨਕਾਰੀ ਹੋਣ ਦਾ ਹੌਂਸਲਾ ਤਕ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦਾ ਸੀ, ਭਾਵੇਂ ਉਹ ਇਹਦੇ ਬਾਰੇ ਪੂਰੀ ਤਰਾਂ ਸਚੇਤ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਮੈਂ ਉਹਦੇ ਕੋਲੋਂ ਰੱਬ ਬਾਰੇ ਪੁੱਛਣਾ ਤਾਂ ਉਹਨੇ ਆਖ ਛੱਡਣਾ, ''ਜਦ ਤੇਰਾ ਦਿਲ ਕਰੇ, ਰੱਬ ਨੂੰ ਧਿਆ ਲਿਆ ਕਰ।" ਨਾਸਤਿਕਤਾ ਦੇ ਸਿਧਾਂਤ ਨੂੰ ਮੰਨਣ ਲਈ ਜੋ ਹੌਂਸਲਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ, ਇਹ ਉਹ ਹੌਂਸਲੇ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ ਨਾਸਤਿਕਤਾ ਹੈ। ਮੈਂ ਜਿਸ ਦੂਜੇ ਆਗੂ ਨੂੰ ਮਿਲ਼ਿਆ, ਉਹਦਾ ਰੱਬ ਵਿਚ ਪੱਕਾ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਸੀ। ਮੈਂ ਤੁਹਾਨੂੰ ਉਹਦਾ ਨਾ ਦਸਦਾਂ - ਮਾਣਯੋਗ ਕਾਮਰੇਡ ਸ਼ਚੀਂਦਰ ਨਾਥ ਸਾਨਿਆਲ, ਜੋ ਹੁਣ ਕਰਾਚੀ ਸਾਜ਼ਿਸ਼ ਕੇਸ ਵਿਚ ਉਮਰ ਕੈਦ ਭੁਗਤ ਰਹੇ ਹਨ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਇੱਕੋ-ਇਕ ਤੇ ਪ੍ਰਸਿੱਧ ਕਿਤਾਬ ਬੰਦੀ ਜੀਵਨ ਵਿਚ ਪਹਿਲੇ ਸਫ਼ੇ ਤੋਂ ਹੀ ਰੱਬ ਦੀ ਸ਼ਾਨ ਦੀ ਜ਼ੋਰਦਾਰ ਮਹਿਮਾ ਗਾਈ ਗਈ ਹੈ। ਇਸ ਖ਼ੂਬਸੂਰਤ ਕਿਤਾਬ ਦੇ ਦੂਜੇ ਭਾਗ ਦੇ ਆਖ਼ਿਰੀ ਸਫ਼ੇ ਵਿਚ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਵੇਦਾਂਤਵਾਦ ਕਾਰਣ ਰੱਬ ਦੀ ਅਧਿਆਤਮਕ ਮਹਿਮਾ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਵਿਚਾਰਾਂ ਦਾ ਸਾਰ ਹੈ। ਇਸਤਗਾਸੇ ਦੀ ਕਹਾਣੀ ਮੁਤਾਬਕ ਜੋ ਇਨਕਲਾਬੀ ਪਰਚਾ 28 ਜਨਵਰੀ 1925 ਨੂੰ ਹਿੰਦੋਸਤਾਨ ਭਰ ਵਿਚ ਵੰਡਿਆ ਗਿਆ ਸੀ, ਉਹ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਦਿਮਾਗ਼ ਦਾ ਸਿੱਟਾ ਸੀ। ਜਿਵੇਂ ਹੁੰਦਾ ਹੀ ਹੈ ਕਿ ਗੁਪਤ ਸਰਗਰਮੀ ਵਿਚ ਕੋਈ ਉੱਘਾ ਆਗੂ ਵਿਚਾਰ ਪ੍ਰਗਟਾਉਂਦਾ ਹੈ, ਜੋ ਕਿ ਉਹਨੂੰ ਬੜੇ ਪਿਆਰੇ ਹੁੰਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਦੂਜੇ ਕਾਰਕੁੰਨਾਂ ਨੂੰ ਮਤਭੇਦਾਂ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਉਨ੍ਹਾਂ ਵਿਚਾਰਾਂ ਨਾਲ਼ ਸਹਿਮਤੀ ਪ੍ਰਗਟਾਉਣੀ ਪੈਂਦੀ ਹੈ।
ਉਸ ਪਰਚੇ ਵਿਚ ਪੂਰਾ ਪੈਰਾ ਪਰਮੇਸ਼ਵਰ ਤੇ ਉਹਦੀਆਂ ਲੀਲਾਵਾਂ ਬਾਰੇ ਸੀ। ਇਹ ਰਹੱਸਵਾਦ ਹੈ। ਮੈਂ ਆਖਣਾ ਇਹ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹਾਂ ਕਿ ਓਦੋਂ ਇਨਕਲਾਬੀ ਪਾਰਟੀ ਵਿਚ ਰੱਬ ਦੀ ਹੋਂਦ ਤੋਂ ਇਨਕਾਰੀ ਹੋਣ ਦਾ ਵਿਚਾਰ ਪੈਦਾ ਵੀ ਨਹੀਂ ਹੋਇਆ ਸੀ। ਕਾਕੋਰੀ ਦੇ ਉੱਘੇ ਚਾਰ ਸ਼ਹੀਦਾਂ ਨੇ ਅਪਣਾ ਅੰਤਿਮ ਦਿਨ ਪ੍ਰਾਰਥਨਾ/ਦੁਆ ਕਰਦਿਆਂ ਲੰਘਾਇਆ ਸੀ। ਰਾਮ ਪ੍ਰਸ਼ਾਦ ਬਿਸਮਿਲ ਪੱਕੇ ਆਰੀਆ ਸਮਾਜੀ ਸਨ। ਸਮਾਜਵਾਦ ਤੇ ਸਾਮਵਾਦ ਦੇ ਖੇਤਰ ਵਿਚ ਅਪਣੇ ਡੂੰਘੇ ਅਧਿਅਨ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਰਾਜਨ ਲਾਹਿੜੀ ਕੋਲੋਂ ਉਪਨਿਸ਼ਦਾਂ ਦੇ ਮੰਤ੍ਰ ਉੱਚਾਰਣ ਤੇ ਗੀਤਾ ਦਾ ਪਾਠ ਕਰਨ ਤੋਂ ਰਿਹਾ ਨਾ ਗਿਆ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਸਾਰਿਆਂ ਵਿਚ ਮੈਂ ਇੱਕੋ ਬੰਦਾ ਦੇਖਿਆ ਸੀ, ਜਿਨ੍ਹੇ ਕਦੇ ਵੀ ਪ੍ਰਾਰਥਨਾ ਨਹੀਂ ਕੀਤੀ ਸੀ ਤੇ ਉਹ ਕਿਹਾ ਕਰਦਾ ਸੀ, "ਧਾਰਮਿਕ ਫ਼ਲਸਫ਼ਾ ਮਨੁੱਖੀ ਕਮਜ਼ੋਰੀ ਜਾਂ ਸੀਮਿਤ ਗਿਆਨ ਦਾ ਸਿੱਟਾ ਹੈ।" ਇਹ ਬੰਦਾ ਵੀ ਉਮਰ ਕੈਦ ਭੁਗਤ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਪਰ ਇਹਨੂੰ ਵੀ ਕਦੇ ਆਖਣ ਦੀ ਹਿੰਮਤ ਨਹੀਂ ਪਈ ਕਿ ਰੱਬ ਨਹੀਂ ਹੈ।
ਉਸ ਅਰਸੇ ਤਕ ਮੈਂ ਸਿਰਫ਼ ਰੋਮਾਂਟਿਕ ਵਿਚਾਰਵਾਦੀ ਇਨਕਲਾਬੀ ਸੀ। ਉਦੋਂ ਤਕ ਤਾਂ ਅਸੀਂ ਸਿਰਫ਼ ਅਨੁਆਈ ਹੀ ਸਾਂ। ਫੇਰ ਸਾਰੀ ਜ਼ਿੰਮੇਵਾਰੀ ਅਪਣੇ ਮੋਢਿਆਂ 'ਤੇ ਲੈਣ ਦਾ ਵੇਲਾ ਆਇਆ। ਕੁਝ ਚਿਰ ਪਾਰਟੀ ਦੇ ਅਟੱਲ ਵਿਰੋਧ ਕਾਰਣ ਇਹਦੀ ਹੋਂਦ ਹੀ ਖ਼ਤਰੇ ਵਿਚ ਸੀ। ਜੋਸ਼ ਨਾਲ਼ ਭਰੇ ਕਾਮਰੇਡ ਹੀ ਨਹੀਂ, ਸਗੋਂ ਆਗੂ ਵੀ ਮਜ਼ਾਕ ਉਡਾਉਣ ਲੱਗੇ। ਕੁਝ ਚਿਰ ਮੈਨੂੰ ਵੀ ਸੰਸਾ ਰਿਹਾ ਕਿ ਕਿਸੇ ਦਿਨ ਮੈਨੂੰ ਵੀ ਅਪਣੀ ਪਾਰਟੀ ਦੀ ਨਿਸਫਲਤਾ ਦਾ ਯਕੀਨ ਹੋ ਜਾਏਗਾ। ਇਹ ਮੇਰੇ ਇਨਕਲਾਬੀ ਜੀਵਨ ਵਿਚ ਆਇਆ ਵੱਡਾ ਮੋੜ ਸੀ। 'ਅਧਿਅਨ ਕਰਨ' ਦੇ ਅਹਿਸਾਸ ਦੀਆਂ ਤਰੰਗਾਂ ਮੇਰੇ ਮਨ ਵਿਚ ਉਭਰਦੀਆਂ ਰਹੀਆਂ। ਅਧਿਅਨ ਕਰ, ਤਾਂ ਕਿ ਤੂੰ ਅਪਣੇ ਵਿਰੋਧੀਆਂ ਦੀਆਂ ਦਲੀਲਾਂ ਦਾ ਜਵਾਬ ਦੇ ਸਕਣ ਦੇ ਯੋਗ ਹੋ ਜਾਏਂ। ਅਪਣੇ ਸਿਧਾਂਤ ਦੀ ਹਮਾਇਤ ਵਿਚ ਦਲੀਲਾਂ ਨਾਲ਼ ਅਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਲੈਸ ਕਰਨ ਲਈ ਅਧਿਅਨ ਕਰ! ਮੈਂ ਅਧਿਅਨ ਕਰਨਾ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦਿੱਤਾ। ਮੇਰੇ ਪਹਿਲੇ ਅਕੀਦੇ ਤੇ ਵਿਸ਼ਵਾਸਾਂ ਵਿਚ ਵੱਡੀ ਤਬਦੀਲੀ ਆ ਗਈ। ਸਾਡੇ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਦੇ ਇਨਕਲਾਬੀਆਂ ਵਿਚ ਸਿਰਫ਼ ਤਸ਼ੱਦਦ ਦੇ ਤੌਰ-ਤਰੀਕਿਆਂ ਦਾ ਰੋਮਾਂਸ ਏਨਾ ਭਾਰੂ ਸੀ, ਹੁਣ ਉਹਦੀ ਥਾਂ ਗੰਭੀਰ ਵਿਚਾਰਾਂ ਨੇ ਲੈ ਲਈ। ਹੁਣ ਰਹੱਸਵਾਦ ਵਾਸਤੇ ਅੰਧਵਿਸ਼ਵਾਸ ਵਾਸਤੇ ਕੋਈ ਥਾਂ ਨਾ ਰਹੀ। ਯਥਾਰਥਵਾਦ ਸਾਡਾ ਸਿਧਾਂਤ ਹੋ ਗਿਆ। ਸਖ਼ਤ ਲੋੜ ਵੇਲੇ ਤਾਕਤ ਦੀ ਵਰਤੋਂ ਜਾਇਜ਼ ਹੈ, ਪਰ ਅਹਿੰਸਾ ਸਾਰੀਆਂ ਜਨਤਕ ਲਹਿਰਾਂ ਦੀ ਅਟੁੱਟ ਨੀਤੀ ਹੈ। ਮੈਂ ਤੌਰ-ਤਰੀਕਿਆਂ ਬਾਰੇ ਕਾਫ਼ੀ ਆਖ ਚੁੱਕਾ ਹਾਂ। ਸਭ ਤੋਂ ਅਹਿਮ ਗੱਲ ਇਹ ਸੀ ਕਿ ਜਿਸ ਆਦਰਸ਼ ਵਾਸਤੇ ਅਸੀਂ ਜੂਝਣਾ ਹੈ, ਉਹਦਾ ਸਪੱਸ਼ਟ ਸੰਬੋਧ ਸਾਡੇ ਸਾਹਮਣੇ ਹੋਵੇ। ਕਿਉਂਕਿ ਐਕਸ਼ਨ ਵਜੋਂ ਕੋਈ ਖ਼ਾਸ ਸਰਗਰਮੀਆਂ ਨਹੀਂ ਹੋ ਰਹੀਆਂ ਸਨ, ਇਸ ਲਈ ਮੈਨੂੰ ਸੰਸਾਰ ਇਨਕਲਾਬ ਦੇ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਆਦਰਸ਼ਾਂ ਦੇ ਅਧਿਅਨ ਵਾਸਤੇ ਕਾਫ਼ੀ ਮੌਕਾ ਮਿਲ ਗਿਆ। ਮੈਂ ਅਰਾਜਕਤਾਵਾਦੀ ਆਗੂ ਬਾਕੂਨਿਨ* ਨੂੰ ਪੜ੍ਹਿਆ। ਸਮਾਜਵਾਦ ਦੇ ਪਿਤਾਮਾ ਮਾਰਕਸ ਦੀਆਂ ਕੁਝ ਲਿਖਤਾਂ ਪੜ੍ਹੀਆਂ ਅਤੇ ਲੈਨਿਨ, ਟਰਾਟਸਕੀ* ਦੀਆਂ ਤੇ ਅਪਣੇ ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚ ਸਫਲ ਇਨਕਲਾਬ ਲਿਆਉਣ ਵਾਲੇ ਹੋਰ ਵਿਅਕਤੀਆਂ ਦੀਆਂ ਕਿਤਾਬਾਂ ਪੜੀ੍ਹਆਂ। ਇਹ ਸਾਰੇ ਨਾਸਤਿਕ ਸਨ। ਬਾਕੂਨਿਨ ਦੀ ਕਿਤਾਬ ਗੌਡ ਐਂਡ ਸਟੇਟ (ਰੱਬ ਤੇ ਰਿਆਸਤ) ਭਾਵੇਂ ਅਧੂਰੀ-ਜਿਹੀ ਹੈ, ਪਰ ਇਹ ਇਸ ਵਿਸ਼ੇ ਦਾ ਦਿਲਚਸਪ ਅਧਿਅਨ ਹੈ। ਇਸ ਤੋਂ ਮਗਰੋਂ ਮੈਨੂੰ ਨਿਰਲੰਬ ਸਵਾਮੀ ਦੀ ਲਿਖੀ ਕਿਤਾਬ ਕੌਮਨ ਸੈਂਸ (ਆਮ ਸਮਝਬੂਝ) ਹੱਥ ਲੱਗੀ। ਇਸ ਕਿਤਾਬ ਵਿਚ ਅਧਿਆਤਮਕ ਨਾਸਤਿਕਵਾਦ ਸੀ। ਇਸ ਵਿਸ਼ੇ ਵਿਚ ਮੇਰੀ ਬਹੁਤ ਜ਼ਿਆਦਾ ਦਿਲਚਸਪੀ ਹੋ ਗਈ। 1926 ਦੇ ਅਖ਼ੀਰ ਤਕ ਮੇਰਾ ਇਹ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਪੱਕਾ ਹੋ ਚੁੱਕਾ ਸੀ ਕਿ ਬ੍ਰਹਮੰਡ ਦੇ ਸਿਰਜਨ, ਪਾਲਣਹਾਰ ਤੇ ਸਰਬਸ਼ਕਤੀਮਾਨ ਦੀ ਹੋਂਦ ਦਾ ਸਿਧਾਂਤ ਬੇਬੁਨਿਆਦ ਹੈ। ਮੈਂ ਇਸ ਵਿਸ਼ੇ ਬਾਰੇ ਅਪਣੇ ਦੋਸਤਾਂ ਨਾਲ਼ ਬਹਿਸ ਕਰਨੀ ਸ਼ੁਰੂ ਕੀਤੀ। ਮੈਂ ਐਲਾਨੀਆ ਨਾਸਤਿਕ ਹੋ ਚੁੱਕਾ ਸੀ। ਨਾਸਤਿਕ ਹੋਣ ਦਾ ਕਾਰਣ ਮੈਂ ਹੇਠਾਂ ਬਿਆਨ ਕਰਦਾ ਹਾਂ।
ਮਈ 1927 ਵਿਚ ਮੈਂ ਲਾਹੌਰ ਵਿਚ ਗ੍ਰਿਫ਼ਤਾਰ ਹੋਇਆ। ਮੇਰੀ ਗ੍ਰਿਫ਼ਤਾਰੀ ਮੇਰੇ ਲਈ ਬੜੀ ਅਚੰਭੇ ਵਾਲੀ ਗੱਲ ਸੀ। ਮੈਨੂੰ ਅਸਲੋਂ ਹੀ ਕੋਈ ਸਾਰ ਨਹੀਂ ਸੀ ਕਿ ਪੁਲਿਸ ਮੇਰੇ ਪਿੱਛੇ ਲੱਗੀ ਹੋਈ ਹੈ। ਜਦ ਮੈਂ ਕਿਸੇ ਬਾਗ਼ ਵਿੱਚੋਂ ਦੀ ਲੰਘ ਰਿਹਾ ਸੀ, ਤਾਂ ਅਚਾਨਕ ਮੈਂ ਦੇਖਿਆ ਕਿ ਪੁਲਿਸ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਘੇਰਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ। ਹੁਣ ਮੈਨੂੰ ਆਪ ਹੈਰਾਨੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਮੈਂ ਉਦੋਂ ਬਹੁਤ ਠਰੰਹਮੇ ਨਾਲ਼ ਪੇਸ਼ ਆਇਆ ਸੀ। ਮੈਨੂੰ ਕੋਈ ਘਬਰਾਹਟ ਨਾ ਹੋਈ। ਪੁਲਿਸ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਹਿਰਾਸਤ ਵਿਚ ਲੈ ਲਿਆ। ਅਗਲੇ ਦਿਨ ਉਹ ਮੈਨੂੰ ਰੇਲਵੇ ਪੁਲਿਸ ਦੀ ਜੇਲ ਲੈ ਗਏ, ਜਿੱਥੇ ਮੈਂ ਪੂਰਾ ਮਹੀਨਾ ਕੱਟਿਆ। ਪੁਲਿਸ ਅਫ਼ਸਰਾਂ ਦੀ ਕਈ ਦਿਨਾਂ ਦੀ ਗੱਲਬਾਤ ਤੋਂ ਮਗਰੋਂ ਮੈਂ ਅੰਦਾਜ਼ਾ ਲਾਇਆ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਕਾਕੋਰੀ ਪਾਰਟੀ ਨਾਲ਼ ਮੇਰੇ ਸੰਬੰਧਾਂ ਬਾਰੇ ਤੇ ਇਨਕਲਾਬੀ ਲਹਿਰ ਨਾਲ਼ ਜੁੜੀਆਂ ਮੇਰੀਆਂ ਕੁਝ ਹੋਰ ਸਰਗਰਮੀਆਂ ਦੀ ਜਾਣਕਾਰੀ ਹੈ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਦੱਸਿਆ ਕਿ (ਕਾਕੋਰੀ) ਮੁਕੱਦਮੇ ਦੀ ਸਮਾਇਤ ਦੌਰਾਨ ਮੈਂ ਲਖਨਊ ਵਿਚ ਸੀ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨਾਲ਼ (ਕਾਕੋਰੀ ਮੁਲਜ਼ਮਾਂ) ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਫ਼ਰਾਰ ਕਰਨ ਦੀ ਵਿਉਂਤ ਬਣਾਈ ਸੀ ਅਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਮਨਜ਼ੂਰੀ ਮਿਲਣ ਮਗਰੋਂ ਅਸੀਂ ਕੁਝ ਬੰਬ ਇਕੱਠੇ ਕੀਤੇ ਸਨ ਅਤੇ ਇਹ ਕਿ ਆਜ਼ਮਾਇਸ਼ ਵਾਸਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਵਿਚੋਂ ਇਕ ਬੰਬ 1926 ਦੇ ਦੁਸਹਿਰੇ ਦੇ ਮੌਕੇ ਉੱਤੇ ਭੀੜ ਵਿਚ ਸੁੱਟਿਆ ਸੀ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਮੇਰੇ ਹਿਤ ਵਾਸਤੇ ਮੈਨੂੰ ਇਹ ਵੀ ਦੱਸਿਆ ਕਿ ਜੇ ਮੈਂ ਇਨਕਲਾਬੀ ਪਾਰਟੀ ਦੀਆਂ ਸਰਗਰਮੀਆਂ ਬਾਰੇ ਕੋਈ ਬਿਆਨ ਦੇ ਦੇਵਾਂ, ਤਾਂ ਮੈਨੂੰ ਕੈਦ ਨਹੀਂ ਹੋਏਗੀ। ਸਗੋਂ ਉਹ ਮੈਨੂੰ ਰਿਹਾਅ ਕਰ ਦੇਣਗੇ ਤੇ ਇਨਾਮ ਦੇਣਗੇ ਤੇ ਮੈਨੂੰ ਅਦਾਲਤ ਵਿਚ ਵਾਅਦਾ ਮੁਆਫ਼ ਵਜੋਂ ਪੇਸ਼ ਨਹੀਂ ਕਰਨਗੇ। ਮੈਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਇਹ ਤਜਵੀਜ਼ ਉੱਤੇ ਹੱਸ ਛੱਡਿਆ। ਇਹ ਸਰਾਸਰ ਧੋਖਾ ਸੀ। ਸਾਡੇ ਵਿਚਾਰਾਂ ਵਾਲ਼ੇ ਲੋਕ ਕਦੇ ਵੀ ਅਪਣੇ ਮਾਸੂਮ ਲੋਕਾਂ ਉੱਤੇ ਬੰਬ ਨਹੀਂ ਸੁੱਟਦੇ। ਇਕ ਦਿਨ ਸਵੇਰੇ ਮਿਸਟਰ ਨਿਊਮੈਨ ਮੇਰੇ ਕੋਲ਼ ਆਇਆ, ਜੋ ਉਨ੍ਹੀ ਦਿਨੀਂ ਸੀ.ਆਈ.ਡੀ. ਦਾ ਸੀਨੀਅਰ ਸੁਪਰਟੰਡੈਂਟ ਹੁੰਦਾ ਸੀ। ਉਹਨੇ ਮੇਰੇ ਨਾਲ਼ ਲੰਮੀ-ਚੌੜੀ ਹਮਦਰਦ ਗੱਲਬਾਤ ਮਗਰੋਂ ਅਪਣੇ ਚਿੱਤੋਂ ਮੈਨੂੰ ਬੜੀ ਮਾੜੀ ਖ਼ਬਰ ਦਿੱਤੀ ਕਿ ਜੇ ਮੈਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਮਰਜ਼ੀ ਮੁਤਾਬਿਕ ਕੋਈ ਬਿਆਨ ਨਾ ਦਿੱਤਾ, ਤਾਂ ਉਹ ਮੇਰੇ ਉੱਤੇ ਕਾਕੋਰੀ ਮੁਕੱਦਮੇ ਦੇ ਸੰਬੰਧ ਵਿਚ ਜੰਗ ਛੇੜਨ ਦੀ ਸਾਜ਼ਿਸ਼ ਅਤੇ ਦੁਸਹਿਰਾ ਬੰਬ ਸਾਕੇ ਦੇ ਵਹਿਸ਼ੀ ਕਾਤਿਲਾਂ ਦਾ ਮੁਕੱਦਮਾ ਚਲਾਉਣ ਲਈ ਮਜਬੂਰ ਹੋਣਗੇ। ਫੇਰ ਉਹ ਮੈਨੂੰ ਆਖਣ ਲੱਗਾ ਕਿ ਮੈਨੂੰ ਸਜ਼ਾ ਦਿਵਾਉਣ ਤੇ ਫਾਹੇ ਲਾਉਣ ਲਈ ਉਨ੍ਹਾਂ ਕੋਲ਼ ਗਵਾਹੀ ਮੌਜੂਦ ਹੈ। ਉਨ੍ਹੀਂ ਦਿਨੀਂ ਮੇਰਾ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਸੀ - ਭਾਵੇਂ ਮੈਂ ਬਿਲਕੁਲ ਮਾਸੂਮ ਸੀ - ਕਿ ਪੁਲਿਸ ਜੋ ਚਾਹਵੇ ਉਹ ਕਰ ਵੀ ਸਕਦੀ ਹੈ। ਉਸੇ ਦਿਨ ਕੁਝ ਪੁਲਿਸ ਅਫ਼ਸਰ ਦੋਹਵੇਂ ਵੇਲੇ ਰੱਬ ਦਾ ਨਾਂ ਲੈਣ ਲਈ ਮੈਨੂੰ ਪ੍ਰੇਰਨ ਲੱਗ ਪਏ। ਮੈਂ ਤਾਂ ਨਾਸਤਿਕ ਸੀ। ਮੈਂ ਅਪਣੇ ਆਪ ਨਾਲ਼ ਫ਼ੈਸਲਾ ਕਰਨਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਸਾਂ ਕਿ ਕੀ ਮੈਂ ਅਮਨ ਚੈਨ ਤੇ ਖ਼ੁਸ਼ੀ ਦੇ ਦਿਨਾਂ ਵਿਚ ਨਾਸਤਿਕ ਹੋਣ ਦੀ ਫੜ੍ਹ ਮਾਰ ਸਕਦਾ ਹਾਂ ਜਾਂ ਇਹੋ ਜਿਹੀ ਔਖੀ ਘੜੀ ਵੇਲੇ ਮੈਂ ਅਪਣੇ ਅਸੂਲਾਂ ਉੱਤੇ ਸਾਬਤ ਕਦਮ ਰਹਿ ਸਕਦਾ ਹਾਂ ਜਾਂ ਨਹੀਂ? ਬੜੀ ਸੋਚ-ਵਿਚਾਰ ਮਗਰੋਂ ਮੈਂ ਫ਼ੈਸਲਾ ਕੀਤਾ ਕਿ ਮੈਂ ਰੱਬ ਵਿਚ ਯਕੀਨ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦਾ ਤੇ ਨਾ ਹੀ ਅਰਦਾਸ ਕਰ ਸਕਦਾ ਹਾਂ। ਮੈਂ ਕਦੇ ਵੀ ਅਰਦਾਸ ਨਾ ਕੀਤੀ। ਇਹ ਪਰਖ ਦੀ ਘੜੀ ਸੀ ਤੇ ਮੈਂ ਇਸ ਪਰਖ ਵਿਚ ਕਾਮਯਾਬ ਰਿਹਾ। ਮੈਂ ਕਦੇ ਇਕ ਪਲ ਵੀ ਕਿਸੇ ਵੀ ਕੀਮਤ ਤੇ ਅਪਣੀ ਜਾਨ ਬਚਾਉਣ ਦੀ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਸੋਚੀ ਸੀ। ਸੋ ਮੈਂ ਪੱਕਾ ਨਾਸਤਿਕ ਸੀ ਤੇ ਓਦੋਂ ਤੋਂ ਲੈ ਕੇ ਹੁਣ ਤਕ ਹਾਂ। ਉਸ ਆਜ਼ਮਾਇਸ਼ ਵਿਚ ਪੂਰਾ ਉਤਰਨਾ ਕੋਈ ਸੌਖੀ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਸੀ। 'ਵਿਸ਼ਵਾਸ' ਮੁਸ਼ਕਿਲਾਂ ਘਟਾ ਦਿੰਦਾ ਹੈ, ਇੱਥੋਂ ਤਕ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਖ਼ੁਸ਼ਗਵਾਰ ਬਣਾ ਦਿੰਦਾ ਹੈ। ਬੰਦਾ ਰੱਬ ਵਿਚ ਧਰਵਾਸ ਅਤੇ ਆਸਰੇ ਦਾ ਬਹੁਤ ਜ਼ੋਰਦਾਰ ਅਹਿਸਾਸ ਲੱਭ ਸਕਦਾ ਹੈ। 'ਉਹਦੇ' ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਅਪਣੇ ਆਪ ਉੱਤੇ ਨਿਰਭਰ ਹੋਣਾ ਪੈਂਦਾ ਹੈ। ਝੱਖੜ-ਝਾਂਜਿਆਂ ਤੇ ਤੂਫ਼ਾਨਾਂ ਵਿਚ ਸਾਬਤਕ.ਦਮ ਰਹਿਣਾ ਬੱਚੇ ਦੀ ਖੇਡ ਨਹੀਂ। ਇਹੋ ਜਿਹੀਆਂ ਆਜ਼ਮਾਇਸ਼ੀ ਘੜੀਆਂ ਵਿਚ ਕਿਸੇ ਵਿਚ ਕੋਈ ਹਉਮੈ ਬਚੀ ਹੋਵੇ, ਤਾਂ ਉਹ ਕਾਫ਼ੂਰ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਮਨੁੱਖ ਆਮ ਵਿਸ਼ਵਾਸਾਂ ਨੂੰ ਉਲੰਘਣ ਦੀ ਹਿੰਮਤ ਤਕ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦਾ। ਜੇ ਉਹ ਹਿੰਮਤ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਤਾਂ ਸਾਨੂੰ ਇਹ ਕਹਿਣਾ ਪਵੇਗਾ ਕਿ ਉਸ ਵਿਚ ਨਿਜੀ ਹਉਮੈ ਨਾਲ਼ੋਂ ਹੋਰ ਕੋਈ ਤਾਕਤ ਵੀ ਹੁੰਦੀ ਹੋਣੀ ਹੈ। ਹੁਣ ਬਿਲਕੁਲ ਇਹੀ ਹਾਲਤ ਹੈ। ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ ਚੰਗੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਪਤਾ ਹੈ ਕਿ (ਸਾਡੇ ਮੁਕੱਦਮੇ ਦਾ) ਕੀ ਫ਼ੈਸਲਾ ਹੋਏਗਾ। ਹਫ਼ਤੇ ਦੇ ਵਿਚ-ਵਿਚ ਫ਼ੈਸਲਾ ਸੁਣਾ ਦਿੱਤਾ ਜਾਏਗਾ। ਮੈਂ ਅਪਣੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਆਦਰਸ਼ ਖ਼ਾਤਰ ਕੁਰਬਾਨ ਕਰ ਦੇਣੀ ਹੈ, ਇਸ ਵਿਚਾਰ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ ਮੇਰਾ ਹੋਰ ਕਿਹੜਾ ਧਰਵਾਸ ਹੈ? ਕਿਸੇ ਆਸਤਿਕ ਹਿੰਦੂ ਨੰੂੰ ਤਾਂ ਦੂਜੇ ਜਨਮ ਵਿਚ ਬਾਦਸ਼ਾਹ ਬਣਨ ਦੀ ਆਸ ਹੋ ਸਕਦੀ ਹੈ। ਕੋਈ ਮੁਸਲਮਾਨ ਜਾਂ ਈਸਾਈ ਤਾਂ ਅਪਣੀਆਂ ਮੁਸ਼ਕਿਲਾਂ ਤੇ ਕੁਰਬਾਨੀਆਂ ਬਦਲੇ ਸਵਰਗ ਦੀਆਂ ਐਸ਼ੋ-ਇਸ਼ਰਤਾਂ ਦੀ ਕਲਪਨਾ ਕਰ ਸਕਦਾ ਹੈ। ਪਰ ਮੈਂ ਕਿਸ ਗੱਲ ਦੀ ਆਸ ਰੱਖਾਂ? ਮੈਨੂੰ ਪਤਾ ਹੈ ਕਿ ਜਿਸ ਪਲ ਮੇਰੇ ਗਲ਼ ਵਿਚ ਫਾਂਸੀ ਦਾ ਫ਼ੰਦਾ ਪਾ ਦਿੱਤਾ ਜਾਏਗਾ ਤੇ ਮੇਰੇ ਪੈਰਾਂ ਹੇਠੋਂ ਤਖ਼ਤੇ ਖੋਲ੍ਹ ਦਿੱਤੇ ਗਏ, ਤਾਂ ਉਹ ਮੇਰਾ ਆਖ਼ਿਰੀ ਪਲ ਹੋਏਗਾ। ਮੇਰਾ ਜਾਂ ਮਿਥਿਹਾਸਿਕ ਸ਼ਬਦਾਵਲੀ ਵਿਚ ਆਖੀਏ ਤਾਂ, ਮੇਰੀ ਆਤਮਾ ਦਾ ਬਿਲਕੁਲ ਖ਼ਾਤਮਾ ਹੋ ਜਾਏਗਾ। ਇਸ ਪਲ ਮਗਰੋਂ ਕੁਝ ਵੀ ਨਹੀਂ ਹੋਣਾ। ਜੇ ਮੈਂ ਇਨਾਮ ਦੇ ਦ੍ਰਿਸ਼ਟੀਕੋਣ ਤੋਂ ਦੇਖਣ ਦੀ ਹਿੰਮਤ ਕਰਾਂ, ਤਾਂ ਸ਼ਾਨਦਾਰ ਅੰਤ ਤੋਂ ਵਾਂਝੀ ਜੱਦੋਜਹਿਦ ਭਰੀ ਮੁਖ਼ਤਸਰ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਹੀ ਅਪਣੇ ਆਪ ਵਿਚ (ਮੇਰਾ) ਇਨਾਮ ਹੋਏਗਾ। * ਮਿਖ਼ਾਇਲ ਬਾਕੂਨਿਨ (1814-1876) ਰੂਸੀ ਇਨਕਲਾਬੀ, ਲੇਖਕ * ਲਿਓਨ ਟਰਾਟਸਕੀ (1879-1940) ਅਕਤੂਬਰ ਇਨਕਲਾਬ ਦਾ ਆਗੂ ਇਸ ਤੋਂ ਵੱਧ ਕੁਝ ਨਹੀਂ। ਹੁਣ ਜਾਂ ਕਦੇ ਵੀ ਕੁਝ ਹਾਸਿਲ ਕਰ ਸਕਣ ਦੀ ਕਿਸੇ ਵੀ ਖ਼ੁਦਗ਼ਰਜ਼ੀ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ ਮੈਂ ਕਾਫ਼ੀ ਬੇਲਾਗ ਹੋ ਕੇ ਅਪਣੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਆਜ਼ਾਦੀ ਦੇ ਲੇਖੇ ਲਾਈ ਹੈ, ਕਿਉਂਕਿ ਮੇਰੇ ਕੋਲ ਇਸ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ ਹੋਰ ਕੋਈ ਚਾਰਾ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਜਿਸ ਦਿਨ ਮਨੁੱਖਤਾ ਦੀ ਸੇਵਾ ਤੇ ਦੁੱਖ ਝਾਗ ਰਹੀ ਮਨੁੱਖਤਾ ਦੇ ਨਜਾਤ ਦੀ ਭਾਵਨਾ ਨਾਲ਼ ਪ੍ਰੇਰੇ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਮਰਦ-ਔਰਤਾਂ ਅੱਗੇ ਆ ਗਏ, ਜਿਹੜੇ ਇਸ ਬਗ਼ੈਰ ਹੋਰ ਕਿਸੇ ਚੀਜ਼ 'ਤੇ ਜੀਵਨ ਨਹੀਂ ਲਾ ਸਕਦੇ। ਉਸ ਦਿਨ ਤੋਂ ਮੁਕਤੀ ਦਾ ਯੁੱਗ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋਵੇਗਾ। ਉਹ ਦਮਨਕਾਰੀਆਂ, ਲੋਟੂਆਂ ਤੇ ਜ਼ਾਲਿਮਾਂ ਨੂੰ ਏਸ ਗੱਲੋਂ ਨਹੀਂ ਵੰਗਾਰਨਗੇ ਕਿ ਉਹ ਇਸ ਜਾਂ ਅਗਲੇ ਜਨਮ ਵਿਚ ਜਾਂ ਮੌਤ ਮਗਰੋਂ ਬਹਿਸ਼ਤ ਵਿਚ ਬਾਦਸ਼ਾਹ ਬਣ ਜਾਣਗੇ ਜਾਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਕੋਈ ਇਨਾਮ ਮਿਲ ਜਾਵੇਗਾ, ਸਗੋਂ ਮਨੁੱਖਤਾ ਦੀ ਧੌਣ ਤੋਂ ਗ਼ੁਲਾਮੀ ਦਾ ਜੂਲਾ ਲਾਹੁਣ ਲਈ ਅਤੇ ਆਜ਼ਾਦੀ ਤੇ ਅਮਨ ਕਾਇਮ ਕਰਨ ਲਈ ਹੀ ਉਹ ਇਸ ਬਿਖੜੇ ਪਰ ਇੱਕੋ-ਇਕ ਸ਼ਾਨਦਾਰ ਮਾਰਗ ਉੱਤੇ ਚਲਣਗੇ। ਕੀ ਅਪਣੇ ਸੱਚੇ ਆਦਰਸ਼ ਵਿਚ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਮਾਣ ਨੂੰ ਅਹੰਕਾਰ ਕਿਹਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ? ਇਹੋ ਜਿਹੀ ਗ਼ਲਤਬਿਆਨੀ ਕਰਨ ਦੀ ਕੌਣ ਜੁਅਰਤ ਕਰ ਸਕਦਾ ਹੈ? ਇਹੋ ਜਿਹੇ ਬੰਦੇ ਨੂੰ ਮੈਂ ਮੂਰਖ ਜਾਂ ਪਾਖੰਡੀ ਆਖਾਂਗਾ। ਚਲੋ ਆਪਾਂ ਇਸ ਨੂੰ ਮੁਆਫ਼ ਕਰ ਦਿੰਦੇ ਹਾਂ, ਕਿਉਂਕਿ ਉਹ ਸੁੱਚੇ ਆਦਰਸ਼ ਵਾਲ਼ੇ ਦਿਲ ਦੇ ਜਜ਼ਬੇ, ਭਾਵਨਾ ਤੇ ਅਹਿਸਾਸ ਨੂੰ ਜਾਣ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ। ਉਹਦਾ ਦਿਲ ਮਾਸ ਦਾ ਬੇਜਾਨ ਲੋਥੜਾ ਹੈ। ਉਹਦੀ ਦ੍ਰਿਸ਼ਟੀ ਕਮਜ਼ੋਰ ਹੈ, ਕਿਉਂਕਿ ਹੋਰ ਗ਼ਰਜ਼ਾਂ ਦੀਆਂ ਬੁਰਾਈਆਂ ਦਾ ਉਨ੍ਹਾਂ ਉੱਤੇ ਪਰਦਾ ਪਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ। ਸਵੈਵਿਸ਼ਵਾਸ ਨੂੰ ਅਹੰਕਾਰ ਸਮਝਿਆ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ। ਇਹ ਅਫ਼ਸੋਸਨਾਕ ਤੇ ਤਰਸਯੋਗ ਗੱਲ ਹੈ, ਪਰ ਇਹਦਾ ਕੋਈ ਚਾਰਾ ਨਹੀਂ।
ਤੁਸੀਂ ਪ੍ਰਚਲਿਤ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਦਾ ਵਿਰੋਧ ਕਰਕੇ ਦੇਖ ਲਓ, ਤੁਸੀਂ ਨਿਹਕਲੰਕ ਅਵਤਾਰ ਸਮਝੇ ਜਾਂਦੇ ਕਿਸੇ ਨਾਇਕ, ਕਿਸੇ ਮਹਾਨ ਪੁਰਖ ਦੀ ਨੁਕਤਾਚੀਨੀ ਕਰਕੇ ਦੇਖ ਲਓ, ਤਾਂ ਤੁਹਾਡੀ ਦਲੀਲ ਦਾ ਜਵਾਬ ਤੁਹਾਨੂੰ ਘੁਮੰਡੀ ਜਾਂ ਅਹੰਕਾਰੀ ਆਖ ਕੇ ਦਿੱਤਾ ਜਾਵੇਗਾ। ਇਹਦਾ ਕਾਰਣ ਮਾਨਸਿਕ ਖ਼ੜੋਤ ਹੈ। ਆਲੋਚਨਾ ਤੇ ਸੁਤੰਤਰ ਸੋਚਣੀ ਇਨਕਲਾਬੀ ਦੇ ਦੋ ਲਾਜ਼ਮੀ ਗੁਣ ਹੁੰਦੇ ਹਨ। ਕਿਉਂਕਿ ਮਹਾਤਮਾ (ਗਾਂਧੀ) ਜੀ ਮਹਾਨ ਹਨ; ਇਸ ਲਈ ਕੋਈ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਆਲੋਚਨਾ ਨਾ ਕਰੇ, ਕਿਉਂਕਿ ਉਹ ਉੱਪਰ ਉੱਠ ਚੁੱਕੇ ਹਨ। ਇਸ ਲਈ ਉਹ ਰਾਜਨੀਤੀ ਜਾਂ ਧਰਮ, ਆਰਥਿਕਤਾ ਜਾਂ ਸਦਾਚਾਰ ਬਾਰੇ ਕੁਝ ਵੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ, ਤਾਂ ਸਹੀ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਤੁਸੀਂ ਮੰਨਦੇ ਹੋ ਭਾਵੇਂ ਨਹੀਂ ਮੰਨਦੇ, ਤੁਹਾਨੂੰ ਇਹ ਜ਼ਰੂਰ ਕਹਿਣਾ ਪਵੇਗਾ, ''ਹਾਂ ਇਹ ਗੱਲ ਠੀਕ ਹੈ।" ਇਹ ਮਾਨਸਿਕਤਾ ਸਾਨੂੰ ਪ੍ਰਗਤੀ ਵਲ ਨਹੀਂ ਲਿਜਾਂਦੀ, ਸਗੋਂ ਇਹ ਸਪੱਸ਼ਟ ਤੌਰ 'ਤੇ ਪ੍ਰਤੀਗਾਮੀ
(ਮਾਨਸਿਕਤਾ) ਹੈ।
ਕਿਉਂਕਿ ਸਾਡੇ ਵੱਡੇ-ਵਡੇਰਿਆਂ ਨੇ ਕਿਸੇ ਸਰਬਸ਼ਕਤੀਮਾਨ ਪਰਮਾਤਮਾ ਵਿਚ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਬਣਾ ਲਿਆ ਸੀ। ਇਸ ਲਈ ਕੋਈ ਵੀ ਬੰਦਾ, ਜਿਹੜਾ ਉਸ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਜਾਂ ਉਸ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਹੋਂਦ ਤੋਂ ਮੁਨਕਰ ਹੋਣ ਦਾ ਹੌਂਸਲਾ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਉਹਨੂੰ ਹਰ ਹਾਲਤ ਵਿਚ ਕਾਫ਼ਿਰ, ਗ਼ੱਦਾਰ ਕਿਹਾ ਜਾਏਗਾ। ਜੇ ਉਹਦੀਆਂ ਵਜ਼ਨਦਾਰ ਦਲੀਲਾਂ ਨੂੰ ਅੱਗੋਂ ਕੱਟਿਆ ਨਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੋਵੇ ਅਤੇ ਸਰਬਸ਼ਕਤੀਮਾਨ ਦੀ ਕਰੋਪੀ ਵੀ ਉਹਦੀ ਜ਼ੋਰਦਾਰ ਦ੍ਰਿੜ੍ਹਤਾ ਨੂੰ ਡੇਗ ਨਾ ਸਕੇ, ਤਾਂ ਉਹਨੂੰ ਘੁਮੰਡੀ ਗਰਦਾਨਿਆ ਜਾਏਗਾ ਅਤੇ ਉਹਦੀ ਦ੍ਰਿੜ੍ਹਤਾ ਨੂੰ ਅਹੰਕਾਰ ਆਖਿਆ ਜਾਏਗਾ। ਤਾਂ ਫੇਰ ਇਸ ਫ਼ਜ਼ੂਲ ਬਹਿਸ ਵਿਚ ਸਮਾਂ ਕਿਉਂ ਜ਼ਾਇਆ ਕੀਤਾ ਜਾਏ? ਇਹ ਸਵਾਲ ਲੋਕਾਂ ਅੱਗੇ ਪਹਿਲੀ ਵਾਰ ਆ ਰਿਹਾ ਹੈ ਤੇ ਇਸ ਨੂੰ ਇਸ ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ਼ ਪਹਿਲੀ ਵਾਰ ਲਿਆ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ, ਇਸੇ ਲਈ ਲੰਮੀ ਬਹਿਸ ਹੋ ਰਹੀ ਹੈ।
ਜਿੱਥੋਂ ਤਕ ਪਹਿਲੇ ਸਵਾਲ ਦਾ ਸੰਬੰਧ ਹੈ, ਮੇਰਾ ਵਿਚਾਰ ਹੈ ਕਿ ਮੈਂ ਸਪੱਸ਼ਟ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਹੈ ਕਿ ਮੈਂ ਅਹੰਕਾਰ ਕਾਰਣ ਨਾਸਤਿਕ ਨਹੀਂ ਬਣਿਆ। ਇਹ ਫ਼ੈਸਲਾ ਮੈਂ ਨਹੀਂ ਸਗੋਂ ਮੇਰੇ ਪਾਠਕਾਂ ਨੇ ਕਰਨਾ ਹੈ ਕਿ ਮੇਰੀਆਂ ਦਲੀਲਾਂ ਖੁੱਭਵੀਆਂ ਸਾਬਿਤ ਹੋਈਆਂ ਹਨ ਜਾਂ ਨਹੀਂ। ਮੈਨੂੰ ਪਤਾ ਹੈ ਕਿ ਹੁਣ ਦੀਆਂ ਹਾਲਤਾਂ ਵਿਚ ਜੇ ਮੈਂ ਆਸਤਿਕ ਹੁੰਦਾ, ਤਾਂ ਮੇਰੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਹੁਣ ਨਾਲ਼ੋਂ ਆਸਾਨ ਹੋਣੀ ਸੀ ਅਤੇ ਮੇਰਾ ਬੋਝ ਹੁਣ ਨਾਲ਼ੋਂ ਘੱਟ ਹੋਣਾ ਸੀ ਅਤੇ ਮੇਰੇ ਰੱਬ ਦੀ ਹੋਂਦ ਤੋਂ ਇਨਕਾਰੀ ਹੋਣ ਕਰਕੇ ਹਾਲਾਤ ਬਹੁਤ ਹੀ ਅਣਸੁਖਾਵੇਂ ਹੋ ਗਏ ਹਨ ਤੇ ਹਾਲਤ ਇਸ ਤੋਂ ਵੀ ਭੈੜੀ ਹੋ ਸਕਦੀ ਹੈ। ਥੋੜ੍ਹਾ ਜਿੰਨਾ ਰਹੱਸਵਾਦ ਇਸ ਹਾਲਤ ਨੂੰ ਸ਼ਾਇਰਾਨਾ ਬਣਾ ਸਕਦਾ ਹੈ। ਪਰ ਮੈਨੂੰ ਅਪਣੇ ਅੰਤ ਵਾਸਤੇ ਕਿਸੇ ਨਸ਼ੇ ਦੀ ਮਦਦ ਦੀ ਲੋੜ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਮੈਂ ਯਥਾਰਥਵਾਦੀ ਹਾਂ। ਮੈਂ ਤਰਕ ਦੀ ਮਦਦ ਨਾਲ਼ ਇਸ ਰੁਜਹਾਨ ਉੱਤੇ ਕਾਬੂ ਪਾਉਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਦਾ ਰਿਹਾ ਹਾਂ। ਮੈਂ ਇਸ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਵਿਚ ਹਮੇਸ਼ਾ ਹੀ ਸਫਲ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ। ਪਰ ਬੰਦੇ ਦਾ ਫ਼ਰਜ਼ ਤਾਂ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰੀ ਜਾਣਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਕਾਮਯਾਬੀ ਮੌਕੇ ਦੇ ਹਾਲਾਤ ਮੁਤਾਬਿਕ ਹੁੰਦੀ ਹੈ।
ਦੂਜਾ ਸਵਾਲ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਜੇ ਅਹੰਕਾਰ ਨਹੀਂ, ਤਾਂ ਰੱਬ ਦੀ ਹੋਂਦ ਪੁਰਾਣੀ ਤੇ ਪ੍ਰਚਲਿਤ ਧਾਰਨਾ ਨੂੰ ਨਾ ਮੰਨਣ ਦਾ ਕੋਈ ਕਾਰਣ ਹੋਵੇਗਾ। ਹਾਂ, ਮੈਂ ਇਸ ਸਵਾਲ ਵਲ ਆਉਂਦਾ ਹਾਂ। ਇਹਦਾ ਕਾਰਣ ਹੈ। ਮੇਰੇ ਵਿਚਾਰ ਅਨੁਸਾਰ ਜਿਸ ਵਿਅਕਤੀ ਕੋਲ ਥੋੜ੍ਹੀ-ਬਹੁਤ ਤਰਕ ਸ਼ਕਤੀ ਹੈ, ਉਹ ਹਮੇਸ਼ਾ ਅਪਣੇ ਆਲ਼ੇ-ਦੁਆਲ਼ੇ ਨੂੰ ਤਰਕ ਦੀ ਕਸਵੱਟੀ ਉੱਤੇ ਪਰਖਦਾ ਹੈ। ਜਿੱਥੇ ਸਿੱਧੇ ਸਬੂਤ ਨਹੀਂ ਮਿਲ਼ਦੇ, ਉੱਥੇ ਫ਼ਲਸਫ਼ੇ ਦਾ ਅਹਿਮ ਥਾਂ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਜਿਵੇਂ ਮੈਂ ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ ਆਖ ਚੁੱਕਾ ਹਾਂ, ਮੇਰਾ ਕੋਈ ਇਨਕਲਾਬੀ ਦੋਸਤ ਕਿਹਾ ਕਰਦਾ ਸੀ ਕਿ 'ਫ਼ਲਸਫ਼ਾ ਮਨੁੱਖੀ ਕਮਜ਼ੋਰੀ ਦੀ ਪੈਦਾਵਾਰ ਹੈ।' ਜਦ ਸਾਡੇ ਵੱਡੇ-ਵਡੇਰਿਆਂ ਕੋਲ਼ ਇਸ ਜਗ-ਤਮਾਸ਼ੇ ਨੂੰ ਜਾਨਣ ਦੀ ਕਾਫ਼ੀ ਫ਼ੁਰਸਤ ਮਿਲੀ ਤੇ ਜਦ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਜਗਤ ਦੇ ਅਤੀਤ ਵਰਤਮਾਨ ਤੇ ਭਵਿੱਖ ਤੇ ਹੋਰ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਸਵਾਲ਼ਾ ਦੇ ਸਿੱਧੇ ਸਬੂਤ ਨਾ ਮਿਲ਼ੇ ਤਾਂ, ਹਰ ਕਿਸੇ ਨੇ ਇਸ ਸਮੱਸਿਆ ਨੂੰ ਅਪਣੇ ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ਼ ਸੁਲਝਾਉਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕੀਤੀ। ਇਸੇ ਕਰਕੇ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਧਰਮਾਂ ਦੇ ਬੁਨਿਆਦੀ ਸਿਧਾਂਤਾਂ ਵਿਚ ਵੱਡੇ-ਵੱਡੇ ਮੱਤਭੇਦ ਮਿਲ਼ਦੇ ਹਨ, ਜਿਹੜੇ ਕਦੇ-ਕਦੇ ਬਹੁਤ ਵਿਰੋਧੀ ਰੂਪ ਅਖ਼ਤਿਆਰ ਕਰ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਜਿੱਥੇ ਏਸ਼ੀਆਈ ਅਤੇ ਯੂਰਪੀ ਫ਼ਿਲਾਸਫ਼ੀਆਂ ਵਿਚ ਵਖਰੇਵਾਂ ਹੈ, ਇੱਥੋਂ ਤਕ ਕਿ ਹਰ ਮਹਾਂਖੇਤਰ ਦੀਆਂ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਵਿਚਾਰ-ਪ੍ਰਣਾਲੀਆਂ ਵਿਚ ਮਤਭੇਦ ਮਿਲ਼ਦਾ ਹੈ। ਏਸ਼ੀਆਈ ਧਰਮਾਂ ਵਿਚ ਮੁਸਲਿਮ ਧਰਮ ਦੀ ਹਿੰਦੂ ਧਰਮ ਨਾਲ਼ ਕੋਈ ਸਾਂਝ ਨਹੀਂ। ਸਿਰਫ਼ ਹਿੰਦੋਸਤਾਨ ਵਿਚ ਹੀ ਬੁੱਧ ਧਰਮ ਅਤੇ ਜੈਨ ਧਰਮ ਬ੍ਰਾਹਮਣਵਾਦ ਤੋਂ ਕਾਫ਼ੀ ਵੱਖਰੇ ਹਨ ਤੇ ਬ੍ਰਾਹਮਣਵਾਦ ਵਿਚ ਵੀ ਅਗਾਂਹ ਆਰੀਆ ਸਮਾਜ ਤੇ ਸਨਾਤਨ ਧਰਮ ਵਰਗੇ ਵਿਰੋਧੀ ਮੱਤ ਹਨ। ਚਾਰਵਾਕ* ਪੁਰਾਤਨ ਕਾਲ ਦਾ ਸੁਤੰਤਰ ਚਿੰਤਕ ਸੀ। ਇਹਨੇ ਰੱਬ ਦੀ ਪ੍ਰਭੂ ਸੱਤਾ ਨੂੰ ਵੰਗਾਰਿਆ ਸੀ। ਇਹਨਾਂ ਸਾਰੇ ਮੱਤਾਂ ਵਿਚ ਬੁਨਿਆਦੀ ਸਵਾਲ ਬਾਰੇ ਮੱਤਭੇਦ ਹਨ ਅਤੇ ਹਰ ਕੋਈ ਅਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਦਰੁਸਤ ਮੰਨਦਾ ਹੈ। ਇਹੋ ਸਾਰੀ ਬੁਰਾਈ ਹੈ। ਪੁਰਾਣੇ ਵਿਦਵਾਨਾਂ ਦੇ ਵਿਚਾਰਾਂ ਅਤੇ ਤਜਰਬਿਆਂ ਨੂੰ ਅਗਿਆਨਤਾ ਵਿਰੁੱਧ ਸਾਡੀ ਆਉਣ ਵਾਲੀ ਜੱਦੋਜਹਿਦ ਦਾ ਆਧਾਰ ਬਣਾਉਣ ਤੇ ਇਸ ਭੇਤ ਭਰੀ ਸਮੱਸਿਆ ਦਾ ਹੱਲ ਲੱਭਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਨ ਦੀ ਥਾਂ ਅਸੀਂ ਸੁਸਤ, ਨਿਕੰਮੇ, ਕੱਟੜ ਧਰਮ ਦੀ ਹਾਲ ਦੁਹਾਈ ਪਾਉਣ ਲੱਗ ਜਾਂਦੇ ਹਾਂ ਅਤੇ ਇੰਜ ਮਨੁੱਖੀ ਜਾਗ੍ਰਤੀ ਵਿਚ ਆਈ ਖੜ੍ਹੋਤ ਦੇ ਕਸੂਰਵਾਰ ਹਾਂ।
ਜਿਹੜਾ ਵੀ ਮਨੁੱਖ ਪ੍ਰਗਤੀ ਦਾ ਹਾਮੀ ਹੈ, ਉਹਨੂੰ ਲਾਜ਼ਿਮੀ ਤੌਰ 'ਤੇ ਪੁਰਾਣੇ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਦੀ ਹਰ ਗੱਲ ਦੀ ਆਲੋਚਨਾ ਕਰਨੀ ਪਏਗੀ, ਇਹਦੇ ਵਿਚ ਅਵਿਸ਼ਵਾਸ ਪ੍ਰਗਟ ਕਰਨਾ ਪਏਗਾ ਤੇ ਇਹਦੇ ਹਰ ਪਹਿਲੂ ਨੂੰ ਵੰਗਾਰਨਾ ਪਏਗਾ; ਪ੍ਰਚਲਿਤ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਦੀ ਇਕੱਲੀ-ਇਕੱਲੀ ਗੱਲ ਦੀ ਬਾਦਲੀਲ ਪੁਣਛਾਣ ਕਰਨੀ ਹੋਵੇਗੀ। ਜੇ ਕੋਈ ਦਲੀਲ ਨਾਲ਼ ਕਿਸੇ ਸਿਧਾਂਤ ਜਾਂ ਫ਼ਲਸਫ਼ੇ ਵਿਚ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਕਰਨ ਲੱਗਦਾ ਹੈ, ਤਾਂ ਉਹ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਸਰਾਹੁਣਯੋਗ ਹੈ। ਉਹਦੀ ਦਲੀਲ ਗ਼ਲਤ ਜਾਂ ਉੱਕਾ ਹੀ ਬੇਬੁਨਿਆਦ ਹੋ ਸਕਦੀ ਹੈ। ਪਰ ਉਹਨੂੰ ਦਰੁਸਤ ਰਾਹ 'ਤੇ ਲਿਆਂਦਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ, ਕਿਉਂਕਿ ਤਰਕਸ਼ੀਲਤਾ ਉਹਦੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦਾ ਧਰੂ-ਤਾਰਾ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਪਰ ਨਿਰਾ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਅਤੇ ਅੰਨ੍ਹਾ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਖ਼ਤਰਨਾਕ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਇਹ ਦਿਮਾਗ ਨੂੰ ਕੁੰਦ ਬਣਾਉਦਾ ਹੈ ਤੇ ਬੰਦੇ ਨੂੰ ਪ੍ਰਤੀਗਾਮੀ ਬਣਾ ਦਿੰਦਾ ਹੈ। ਜਿਹੜਾ ਵੀ ਬੰਦਾ ਯਥਾਰਥਵਾਦੀ ਹੋਣ ਦਾ ਦਾਅਵਾ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਉਹਨੂੰ ਸਮੁੱਚੇ ਪੁਰਾਤਨ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਨੂੰ ਚੈਲੰਜ ਕਰਨਾ ਪਏਗਾ। ਜੇ ਇਹ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਦਲੀਲ ਅੱਗੇ ਨਾ ਖੜ੍ਹ ਸਕੇ, ਤਾਂ ਇਹ ਢਹਿ-ਢੇਰੀ ਹੋ ਜਾਣਗੇ। ਫਿਰ ਉਸ ਬੰਦੇ ਦਾ ਪਹਿਲਾ ਕੰਮ ਸਾਰੇ ਪੁਰਾਤਨ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਨੂੰ ਤਬਾਹ ਕਰਕੇ ਨਵੇਂ ਫ਼ਲਸਫ਼ੇ ਲਈ ਜ਼ਮੀਨ ਤਿਆਰ ਕਰਨਾ ਹੋਵੇਗਾ। ਇਹ ਨਕਾਰਾਤਮਕ ਪੱਖ ਹੈ। ਇਸ ਤੋਂ ਮਗਰੋਂ ਸਕਾਰਾਤਮਕ ਕੰਮ ਸ਼ੁਰੂ ਹੰਦਾ ਹੈ, ਜਿਸ ਵਿਚ ਕਈ ਪੁਰਾਣੇ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਦੀ ਕੁਝ ਸਮੱਗਰੀ ਮੁੜ ਉਸਾਰੀ ਲਈ ਵਰਤੀ ਜਾ ਸਕਦੀ ਹੈ। ਜਿੱਥੋਂ ਤਕ ਮੇਰਾ ਸੰਬੰਧ ਹੈ, ਮੈਂ ਇਹ ਤਸਲੀਮ ਕਰਦਾ ਹਾਂ ਕਿ ਮੈਂ ਇਸ ਬਾਰੇ ਬਹੁਤਾ ਅਧਿਅਨ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਿਆ। ਏਸ਼ੀਆਈ ਫ਼ਲਸਫ਼ੇ ਨੂੰ ਪੜ੍ਹਨ ਦੀ ਮੇਰੀ ਵੱਡੀ ਰੀਝ ਸੀ, ਪਰ ਮੈਨੂੰ ਇਸ ਦਾ ਵਕਤ ਜਾਂ ਮੌਕਾ ਨਹੀਂ ਮਿਲ ਸਕਿਆ। ਪਰ ਜਿੱਥੋਂ ਤਕ ਨਕਾਰਾਤਮਕ ਪੱਖ ਦਾ ਸੰਬੰਧ ਹੈ, ਮੈਨੂੰ ਇੱਥੋਂ ਤਕ ਯਕੀਨ ਹੈ ਕਿ ਮਂੈ ਪੁਰਾਤਨ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਦੀ ਪੁਖ਼ਤਗੀ ਉੱਤੇ ਕਿੰਤੂ ਕਰ ਸਕਦਾ ਹਾਂ। (ਮੈਨੂੰ ਪੱਕਾ ਯਕੀਨ ਹੈ ਕਿ ਕੁਦਰਤ ਨੂੰ ਚਲਾਉਣ ਵਾਲ਼ਾ ਕੋਈ ਪਰਮਾਤਮਾ ਜਾਂ ਸਚੇਤ-ਸੱਤਾ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਸਾਡਾ ਕੁਦਰਤ ਵਿਚ ਯਕੀਨ ਹੈ ਤੇ ਸਮੁੱਚੀ ਤਰੱਕੀ ਦਾ ਨਿਸ਼ਾਨਾ ਮਨੁੱਖ ਦਾ ਕੁਦਰਤ ਉੱਤੇ ਅਪਣੀ ਸੇਵਾ ਵਾਸਤੇ ਗ਼ਲਬਾ ਪਾਉਣਾ ਹੈ।) ਇਹਦੇ ਪਿੱਛੇ ਕੋਈ ਸਚੇਤ ਚਾਲਕ ਸ਼ਕਤੀ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਇਹੋ ਸਾਡਾ ਫ਼ਲਸਫ਼ਾ ਹੈ।
ਨਕਾਰਾਤਮਕ ਪੱਖ ਤੋਂ ਅਸੀਂ ਆਸਤਿਕਾਂ ਤੋਂ ਕੁਝ ਸਵਾਲ ਪੁੱਛਦੇ ਹਾਂ:
ਤੁਹਾਡੇ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਅਨੁਸਾਰ ਜੇ ਕੋਈ ਸਰਵਸ਼ਕਤੀਮਾਨ, ਸਰਵਵਿਆਪਕ ਤੇ ਸਰਵਗਿਆਤਾ ਰੱਬ ਹੈ, ਤਾਂ ਦੁਨੀਆ ਜਾਂ ਧਰਤੀ ਨੂੰ ਕਿਸਨੇ ਸਾਜਿਆ ਸੀ। ਮੈਨੂੰ ਇਹ ਦੱਸਣ ਦੀ ਮਿਹਰਬਾਨੀ ਕਰੋ ਕਿ ਉਸਨੇ ਧਰਤੀ ਸਾਜੀ ਹੀ ਕਿਉਂ? ਉਹ ਧਰਤੀ ਜੋ ਦੁੱਖਾਂ, ਆਫ਼ਤਾਂ, ਅਣਗਿਣਤ ਅਨੰਤ ਦੁਖਾਂਤਾਂ ਨਾਲ਼ ਭਰੀ ਪਈ ਹੈ। ਜਿੱਥੇ ਇਕ ਵੀ ਜੀਅ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਸੁਖੀ ਨਹੀਂ ਹੈ।
ਮਿਹਰਬਾਨੀ ਕਰਕੇ ਇਹ ਨਾ ਆਖੋ ਕਿ ਇਹ ਉਸਦਾ ਨੇਮ ਹੈ: ਜੇ ਉਹ ਕਿਸੇ ਨੇਮ ਦੇ ਵੱਸ ਹੈ, ਤਾਂ ਉਹ ਸਰਵਸ਼ਕਤੀਮਾਨ ਨਹੀਂ। ਤਾਂ ਫੇਰ ਉਹ ਵੀ ਸਾਡੇ ਵਰਗਾ ਗ਼ੁਲਾਮ ਹੈ। ਮਿਹਰਬਾਨੀ ਕਰਕੇ ਇਹ ਵੀ ਨਾ ਆਖੋ ਕਿ ਉਹ ਉਸਦਾ ਸ਼ੁਗਲ ਹੈ। ਨੀਰੋ ਨੇ ਤਾਂ ਇੱਕੋ ਰੋਮ ਸਾੜ ਕੇ ਸਵਾਹ ਕੀਤਾ ਸੀ। ਉਸ ਨੇ ਗਿਣਤੀ ਦੇ ਬੰਦੇ ਜਾਨੋਂ ਮਾਰੇ ਸਨ। ਉਸਦੇ ਹੱਥੋਂ ਬਹੁਤ ਘੱਟ ਦੁਖਾਂਤ ਵਾਪਰੇ। ਇਹ ਸਭ ਉਸ ਨੇ ਅਪਣੇ ਮਜ਼ੇ ਲਈ ਕੀਤਾ ਤੇ ਇਤਿਹਾਸ ਵਿਚ ਉਹਨੂੰ ਕਿਹੜੀ ਥਾਂ ਹਾਸਿਲ ਹੈ? ਇਤਿਹਾਸਕਾਰ ਉਹਦਾ ਜ਼ਿਕਰ ਕਿਹੜੇ ਨਾਵਾਂ ਨਾਲ਼ ਕਰਦੇ ਹਨ? ਸਾਰੇ ਵਿਹੁਲੇ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ਣ ਉਹਦੇ ਲਈ ਵਰਤੇ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਜ਼ਾਲਿਮ, ਬੇਰਹਿਮ, ਸ਼ੈਤਾਨ ਨੀਰੋ ਦੀ ਨਿਖੇਧੀ ਕਰਨ ਲਈ ਲਾਹਨਤਾਂ ਨਾਲ਼ ਸਫ਼ਿਆਂ ਦੇ ਸਫ਼ੇ ਕਾਲ਼ੇ ਕੀਤੇ ਪਏ ਹਨ। ਇਕ ਚੰਗੇਜ਼ ਖ਼ਾਨ ਨੇ ਮਜ਼ਾ ਲੈਣ ਲਈ ਕੁਝ ਹਜ਼ਾਰ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਜਾਨ ਲਈ ਸੀ ਅਤੇ ਅੱਜ ਅਸੀਂ ਉਹਦੇ ਨਾਂ ਤਕ ਨੂੰ ਨਫ਼ਰਤ ਕਰਦੇ ਹਾਂ। ਤਾਂ ਫੇਰ ਤੁਸੀਂ ਅਪਣੇ ਸਰਵਸ਼ਕਤੀਮਾਨ ਅਨੰਤ ਨੀਰੋ ਨੂੰ ਕਿਵੇਂ ਵਾਜਿਬ ਠਹਿਰਾਓਗੇ; ਜੋ ਅਜੇ ਵੀ ਹਰ ਦਿਨ, ਹਰ ਘੜੀ ਤੇ ਹਰ ਪਲ ਅਣਗਿਣਤ ਕਤਲ ਕਰੀ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ? ਤੁਸੀਂ ਉਸ ਦੀਆਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਕਰਤੂਤਾਂ ਦੀ ਹਿਮਾਇਤ ਕਿਵੇਂ ਕਰੋਗੇ, ਜਿਹੜੀਆਂ ਪਲੋ-ਪਲੀ ਚੰਗੇਜ਼ ਦੀਆਂ ਕਰਤੂਤਾਂ ਨੂੰ ਵੀ ਮਾਤ ਪਾਈ ਜਾਂਦੀਆਂ ਹਨ? ਮੈਂ ਪੁੱਛਦਾ ਹਾਂ ਕਿ ਇਹ ਦੁਨੀਆ ਬਣਾਈ ਹੀ ਕਿਉਂ ਸੀ? ਦੁਨੀਆ ਜਿਹੜੀ ਸੱਚੀਮੁੱਚੀ ਦਾ ਨਰਕ ਹੈ, ਅਨੰਤ ਤੇ ਤਲਖ਼ ਬੇਚੈਨੀ ਦਾ ਘਰ ਹੈ। ਸਰਵਸ਼ਕਤੀਮਾਨ ਨੇ ਮਨੁੱਖ ਕਿਉਂ ਸਾਜਿਆ, ਜਦ ਕਿ ਉਹਦੇ ਕੋਲ਼ ਮਨੁੱਖ ਸਾਜਣ ਦੀ ਤਾਕਤ ਸੀ? ਇੰਨ੍ਹਾਂ ਸਾਰੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਦਾ ਤੁਹਾਡੇ ਕੋਲ਼ ਕੀ ਜਵਾਬ ਹੈ? ਤੁਸੀਂ ਇਹ ਆਖੋਗੇ ਕਿ ਅਗਲੇ ਜਨਮ ਵਿਚ ਮਾਸੂਮ ਪੀੜਿਤਾਂ ਨੂੰ ਨਿਵਾਜਣ ਲਈ ਅਤੇ ਕੁਕਰਮੀਆਂ ਨੂੰ ਸਜ਼ਾ ਦੇਣ ਲਈ ਉਸਨੇ ਇੰਜ ਕੀਤਾ? ਅੱਛਾ ਤਾਂ ਫੇਰ, ਤੁਸੀਂ ਉਸ ਬੰਦੇ ਨੂੰ ਕਿਵੇਂ ਹੱਕੀ ਠਹਿਰਾਉਗੇ, ਜੋ ਤੁਹਾਡੇ ਸਰੀਰ ਨੂੰ ਇਸ ਵਾਸਤੇ ਜ਼ਖ਼ਮੀ ਕਰਦਾ ਹੈ ਕਿ ਮਗਰੋਂ ਬੜੇ ਪਿਆਰ ਨਾਲ਼ ਟਕੋਰਾਂ ਕਰੇਗਾ? ਗਲੈਡੀਏਟਰ ਸੰਸਥਾ ਦੇ ਹਮਾਇਤੀਆਂ ਤੇ ਪ੍ਰਬੰਧਕਾਂ ਦਾ ਇਹ ਕਾਰਾ ਕਿੱਥੋਂ ਤਾਈਂ ਸਹੀ ਹੁੰਦਾ ਸੀ, ਦੂਜੇ ਉਹ *ਮਹਾਭਾਰਤ ਵੇਲੇ ਦਾ ਸੰਦੇਹਵਾਦੀ ਦਾਰਸ਼ਨਿਕ, ਜਿਹੜਾ ਪਦਾਰਥਵਾਦੀ ਸਿਧਾਂਤ ਦਾ ਪ੍ਰਚਾਰਕ ਸੀ। ਸਮੇਂ ਦੇ ਹਾਕਮਾਂ ਨੇ ਉਸ ਨੂੰ ਜਿਉਂਦੇ ਨੂੰ ਸਾੜ ਦਿੱਤਾ ਸੀ। ਭੁੱਖੇ ਕਰੋਪੀ ਸ਼ੇਰਾਂ ਅੱਗੇ ਬੰਦਿਆਂ ਨੂੰ ਇਸ ਲਈ ਸੁੱਟ ਦਿੰਦੇ ਸੀ ਕਿ, ਜੇ ਉਹ ਸ਼ੇਰਾਂ ਦੇ ਹੱਥੋਂ ਬਚ ਗਏ, ਤਾਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਬਹੁਤ ਖ਼ਾਤਰ-ਤਵੱਜੋ ਹੋਏਗੀ? ਇਸੇ ਕਰਕੇ ਮੈਂ ਪੁੱਛਦਾ ਹਾਂ: ''ਸਚੇਤ ਸਰਬ ਉੱਚ ਸੱਤਾ ਨੇ ਇਹ ਦੁਨੀਆ ਤੇ ਮਨੁੱਖ ਕਿਉਂ ਸਾਜਿਆ? ਮਜ਼ਾ ਲੈਣ ਲਈ। ਫੇਰ ਉਹਦੇ ਵਿਚ ਤੇ ਨੀਰੋ ਵਿਚ ਫ਼ਰਕ ਹੀ ਕੀ ਹੈ।"
ਮੁਸਲਮਾਨੋ ਤੇ ਈਸਾਈਓ: ਹਿੰਦੂ ਦਰਸ਼ਨ ਕੋਲ਼ ਤਾਂ ਹੋਰ ਵੀ ਦਲੀਲ ਹੋਏਗੀ, ਮੈਂ ਤੁਹਾਡੇ ਕੋਲ਼ੋਂ ਉਪਰਲੇ ਸਵਾਲ਼ਾਂ ਦੇ ਜਵਾਬ ਪੁੱਛਦਾ ਹਾਂ। ਪੂਰਬਲੇ ਜਨਮ ਵਿਚ ਤੁਹਾਡਾ ਯਕੀਨ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਤੁਸੀਂ ਹਿੰਦੂਆਂ ਵਾਂਗ ਮਾਸੂਮ ਪੀੜਿਤਾਂ ਦੇ ਪਹਿਲੇ ਕੀਤੇ ਮੰਦੇ ਕਰਮਾਂ ਵਾਲੀ ਦਲੀਲ ਨਹੀਂ ਵਰਤ ਸਕਦੇ। ਮੈਂ ਤੁਹਾਥੋਂ ਪੁੱਛਦਾ ਹਾਂ ਕਿ ਸਰਬਸ਼ਕਤੀਮਾਨ ਨੇ ਇਹ ਦੁਨੀਆ ਸਾਜਣ ਲਈ ਛੇ ਦਿਨ ਕਿਉਂ ਲਾਏ? ਉਹਨੇ ਕਿਉਂ ਕਿਹਾ ਸੀ ਕਿ ਸਭ ਅੱਛਾ ਹੈ? ਉਹਨੂੰ ਅੱਜ ਹੀ ਸੱਦੋ। ਉਹਨੂੰ ਪਿਛਲਾ ਇਤਿਹਾਸ ਦਿਖਾਓ। ਉਹਨੂੰ ਮੌਜੂਦਾ ਹਾਲਾਤ ਬਾਰੇ ਜਾਣਨ ਦਿਓ। ਫੇਰ ਦੇਖਾਂਗੇ ਕਿ ਉਹ ਇਹ ਕਹਿਣ ਦੀ ਜੁਰਅਤ ਕਰਦਾ ਹੈ: ਸਭ ਅੱਛਾ ਹੈ।
ਜੇਲਖ਼ਾਨਿਆਂ ਦੀਆਂ ਕਾਲ਼ਕੋਠੜੀਆਂ ਤੋਂ ਗੰਦੀਆਂ ਬਸਤੀਆਂ ਤੇ ਝੌਂਪੜੀਆਂ ਵਿਚ ਭੁੱਖਮਰੀ ਦੇ ਹੱਥੋਂ ਮਰ ਰਹੇ ਲੱਖਾਂ ਹੀ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਦੇਖ ਕੇ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਲੋਕਾਂ ਕੋਲੋਂ ਚੁੱਪ-ਚਾਪ ਜਾਂ ਕਹਿ ਲਓ, ਬੇਵਾਸਤਗੀ ਨਾਲ਼ ਅਪਣਾ ਲਹੂ ਪਿਲਾ ਰਹੇ ਲੁਟੀਂਦੇ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਨੂੰ ਦੇਖ ਕੇ, ਇਨਸਾਨੀ ਤਾਕਤ ਦੀ ਬਰਬਾਦੀ ਜਿਸਨੂੰ ਦੇਖ ਕੇ ਅੱਤ ਸਾਧਾਰਾਣ ਬੁੱਧੀ ਵਾਲ਼ਾ ਵਿਅਕਤੀ ਵੀ ਡਰ ਨਾਲ਼ ਕੰਬਣ ਲੱਗ ਜਾਏ ਅਤੇ ਲੋੜਵੰਦਾਂ ਨੂੰ ਵੰਡਣ ਦੀ ਥਾਂ ਵਾਧੂ ਪੈਦਾਵਾਰ ਸਮੁੰਦਰਾਂ ਵਿਚ ਸੁੱਟੀ ਜਾਂਦੀ ਦੇਖ ਕੇ, ਇਨਸਾਨਾਂ ਦੀਆਂ ਹੱਡੀਆਂ ਨਾਲ਼ ਚਿਣੀਆਂ ਨੀਹਾਂ ਉੱਤੇ ਉਸਰੇ ਬਾਦਸ਼ਾਹਾਂ ਦੇ ਮਹਿਲਾਂ ਨੂੰ ਦੇਖ ਕੇ ਉਹ ਰਤਾ ਆਖੇ ਤਾਂ ਸਹੀ: ਸਭ ਅੱਛਾ ਹੈ। ਕਿਉਂ ਤੇ ਕਿਸ ਕਾਰਣ? ਇਹ ਮੇਰਾ ਸਵਾਲ ਹੈ। ਤੁਸੀਂ ਚੁੱਪ ਹੋ। ਠੀਕ ਹੈ, ਮੈਂ ਅਪਣੀ ਗੱਲ ਅੱਗੇ
ਤੋਰਦਾ ਹਾਂ।
ਤੁਸੀਂ ਹਿੰਦੂ ਇਹ ਆਖਦੇ ਹੋ ਕਿ ਅੱਜ ਜਿਹੜਾ ਵੀ ਦੁੱਖ ਝੱਲ ਰਿਹਾ ਹੈ, ਉਹ ਪੂਰਬਲੇ ਜਨਮ ਦੇ ਮੰਦੇ ਕਰਮਾਂ ਕਰਕੇ ਹੈ। ਠੀਕ ਤੁਸੀਂ ਇਹ ਵੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹੋ ਕਿ ਜਿਹੜੇ ਅੱਜ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਦਬਾ ਰਹੇ ਹਨ, ਉਹ ਪੂਰਬਲੇ ਜਨਮਾਂ ਵਿਚ ਧਰਮਾਤਮਾ ਲੋਕ ਸਨ। ਇਸ ਕਰਕੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਹੱਥ ਤਾਕਤ ਹੈ। ਮੈਂ ਤਾਂ ਮੰਨਦਾ ਹਾਂ ਕਿ ਤੁਹਾਡੇ ਵੱਡੇ-ਵਡੇਰੇ ਬੜੇ ਸ਼ਾਤਰ ਲੋਕ ਸਨ। ਉਹ ਐਸੇ ਸਿਧਾਂਤ ਲੱਭਣ ਵਿਚ ਲੱਗੇ ਰਹੇ, ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨਾਲ਼ ਤਰਕ ਤੇ ਅਵਿਸ਼ਵਾਸ ਨੂੰ ਖ਼ਤਮ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕੇ। ਪਰ ਆਪਾਂ ਦੇਖਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਇਸ ਦਲੀਲ ਵਿਚ ਕਿੰਨਾ ਕੁ ਵਜ਼ਨ ਹੈ?
ਉੱਘੇ ਨਿਆਂਸ਼ਾਸਤਰੀਆਂ ਦਾ ਇਹ ਵਿਚਾਰ ਹੈ ਕਿ ਕਸੂਰਵਾਰ ਨੂੰ ਜੋ ਸਜ਼ਾ ਦਿੱਤੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ, ਉਸਦੇ ਤਿੰਨ ਜਾਂ ਚਾਰ ਮਕਸਦ ਹੋ ਸਕਦੇ ਹਨ ਤੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਕਰਕੇ ਸਜ਼ਾ ਨੂੰ ਵਾਜਿਬ ਕਰਾਰ ਦਿੱਤਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ। ਇਹ ਮਕਸਦ ਹਨ: ਬਦਲਾ, ਸੁਧਾਰ ਤੇ ਵਰਜਣ ਲਈ ਡਰ। ਹੁਣ ਸਾਰੇ ਸਿਆਣੇ ਚਿੰਤਕ ਬਦਲੇ ਦੇ ਸਿਧਾਂਤ ਦੀ ਨਿਖੇਧੀ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਵਰਜਣ ਵਾਲੇ ਸਿਧਾਂਤ ਦੀ ਵੀ ਨੁਕਤਾਚੀਨੀ ਹੋ ਰਹੀ ਹੈ। ਸੁਧਾਰਕ ਸਿਧਾਂਤ ਹੀ ਜ਼ਰੂਰੀ ਹੈ ਅਤੇ ਇਨਸਾਨੀ ਤਰੱਕੀ ਦਾ ਅਟੁੱਟ ਅੰਗ ਹੈ। ਇਸ ਸਿਧਾਂਤ ਦਾ ਮੰਤਵ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਕਸੂਰਵਾਰ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਧ ਕਾਬਿਲ ਤੇ ਅਮਨਪਸੰਦ ਸ਼ਹਿਰੀ ਬਣ ਕੇ ਸਮਾਜ ਵਿਚ ਵਾਪਸ ਆ ਜਾਵੇ। ਪਰ ਜੇ ਅਸੀਂ ਇਹ ਮੰਨ ਵੀ ਲਈਏ ਕਿ ਬੰਦਿਆਂ ਨੇ (ਪੂਰਬਲੇ ਜਨਮ ਵਿਚ) ਪਾਪ ਕੀਤੇ ਹੋਣਗੇ, ਤਾਂ ਰੱੱਬ ਜਿਹੜੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਸਜ਼ਾ ਦਿੰਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਕਿਹੋ ਜਿਹੀ ਹੈ? ਤੁਸੀਂ ਆਖਦੇ ਹੋ ਕਿ ਉਹ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਗਾਂ, ਬਿੱਲੀ, ਦਰੱਖ਼ਤ, ਜੜ੍ਹੀ-ਬੂਟੀ ਜਾਂ ਜਾਨਵਰ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਜਨਮ ਲੈਣ ਲਈ ਭੇਜਦਾ ਹੈ। ਤੁਸੀਂ ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਜ਼ਾਵਾਂ ਦੀ ਗਿਣਤੀ 84 ਲੱਖ ਦੱਸਦੇ ਹੋ। ਮੈਨੂੰ ਇਹ ਦੱਸੋ ਕਿ ਇਸ ਦਾ ਮਨੁੱਖ ਉੱਤੇ ਕੋਈ ਸੁਧਾਰਕ ਅਸਰ ਪੈਂਦਾ ਹੈ? ਤੁਸੀਂ ਐਸੇ ਕਿੰਨੇ ਕੁ ਜਣਿਆਂ ਨੂੰ ਮਿਲ਼ੇ ਹੋ, ਕਿ ਉਹ ਪਾਪ ਕਰਨ ਕਾਰਣ ਪਿਛਲੇ ਜਨਮ ਵਿਚ ਗਧੇ ਦੀ ਜੂਨ ਪਏ ਸਨ? ਕੋਈ ਨਹੀਂ ਮਿਲ਼ਿਆ ਹੋਣਾ। ਅਪਣੇ ਪੁਰਾਣਾਂ ਦੇ ਬਿਰਤਾਂਤ ਦੇਣ ਦੀ ਲੋੜ ਨਹੀਂ। ਮੈਂ ਤੁਹਾਡੀਆਂ ਮਿਥਿਹਾਸਿਕ ਕਹਾਣੀਆਂ ਦਾ ਜ਼ਿਕਰ ਤਕ ਨਹੀਂ ਛੁਹਣਾ ਚਾਹੁੰਦਾ। ਇਸ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ ਤੁਹਾਨੂੰ ਇਸ ਗੱਲ ਦਾ ਪਤਾ ਹੈ ਕਿ ਦੁਨੀਆਵਿਚ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਡਾ ਪਾਪ ਗ਼ਰੀਬ ਹੋਣਾ ਹੈ। ਗ਼ਰੀਬੀ ਪਾਪ ਹੈ, ਇਹ ਸਜ਼ਾ ਹੈ। ਤੁਸੀਂ ਇਹੋ ਜਿਹੀਆਂ ਸਜ਼ਾਵਾਂ ਤਜਵੀਜ਼ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਕਿਸੇ ਅਪਰਾਧ-ਵਿਗਿਆਨੀ, ਕਿਸੇ ਕਾਨੂੰਨਦਾਨ ਜਾਂ ਕਾਨੂੰਨਸਾਜ਼ ਦੀ ਕਿੰਨੀ ਕੁ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਲਾਹੀ ਕਰੋਗੇ, ਜਿਸ ਨਾਲ਼ ਮਨੁੱਖ ਹੋਰ ਵਧੇਰੇ ਗੁਨਾਹ ਕਰਨ ਲਈ ਮਜ਼ਬੂਰ ਹੁੰਦਾ ਹੈ? ਕੀ ਤੁਹਾਡੇ ਰੱਬ ਨੇ ਇਸ ਗੱਲ ਬਾਰੇ ਪਹਿਲਾਂ ਨਹੀਂ ਸੋਚਿਆ ਸੀ ਜਾਂ ਉਹ ਵੀ ਇਹ ਗੱਲਾਂ ਮਨੁੱਖਤਾ ਦੀਆਂ ਅਕਹਿ ਦੁੱਖ-ਤਕਲੀਫ਼ਾਂ ਦੀ ਕੀਮਤ ਉੱਤੇ ਤਜਰਬਿਆਂ ਰਾਹੀਂ ਸਿੱਖਦਾ ਹੈ। ਤੁਹਾਡੀ ਜਾਚੇ ਕਿਸੇ ਚਮਾਰ ਜਾਂ ਭੰਗੀ ਦੇ ਅਨਪੜ੍ਹ ਪਰਿਵਾਰ ਵਿਚ ਜੰਮੇ ਬੰਦੇ ਦੀ ਕੀ ਹੋਣੀ ਹੋਏਗੀ? ਉਹ ਗ਼ਰੀਬ ਹੈ, ਇਸ ਲਈ ਉਹ ਪੜ੍ਹਾਈ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦਾ। ਖ਼ੁਦ ਨੂੰ ਚੰਗੇ ਸਮਝਣ ਵਾਲੇ ਦੂਜੇ ਇਨਸਾਨ ਉਹਨੂੰ ਨਫ਼ਰਤ ਕਰਦੇ ਹਨ ਤੇ ਧਿੱਕਾਰਦੇ ਹਨ, ਕਿਉਂਕਿ ਉਹ ਉਚੇਰੀ ਜ਼ਾਤ ਵਿਚ ਪੈਦਾ ਹੋਏ ਸਨ। ਉਸਦੀ ਅਗਿਆਨਤਾ ਉਸਦੀ ਗ਼ਰੀਬੀ ਤੇ ਜਿਹੜਾ ਸਲੂਕ ਉਸਦੇ ਨਾਲ਼ ਹੁੰਦਾ ਹੈ, ਇੰਨ੍ਹਾਂ ਸਾਰੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਕਾਰਣ ਸਮਾਜ ਤਾਈਂ ਉਸਦਾ ਦਿਲ ਸਖ਼ਤ ਹੋ ਜਾਏਗਾ। ਫ਼ਰਜ਼ ਕਰੋ ਕਿ ਉਹ ਕੋਈ ਪਾਪ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਤਾਂ ਇਹਦਾ ਖ਼ਮਿਆਜ਼ਾ ਕੌਣ ਭੁਗਤੇਗਾ? ਰੱਬ ਜਾਂ ਪਾਪ ਕਰਨ ਵਾਲ਼ਾ ਜਾਂ ਸਮਾਜ ਦੇ ਗੁਣੀ-ਗਿਆਨੀ ਬੰਦੇ? ਉਨ੍ਹਾਂ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਮਿਲ਼ੀਆਂ ਸਜ਼ਾਵਾਂ ਬਾਰੇ ਤੁਸੀਂ ਕੀ ਆਖੋਗੇ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਹਿਰਸੀ ਤੇ ਹੰਕਾਰੀ ਬ੍ਰਾਹਮਣਾਂ ਨੇ ਜਾਣ-ਬੁੱਝ ਕੇ ਅਗਿਆਨਤਾ ਦੀਆਂ ਗ਼ਾਰਾਂ ਵਿਚ ਸੁੱਟਿਆ ਸੀ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਕਸੂਰ ਇਹੋ ਸੀ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ * ਪੁਰਾਤਨ ਰੋਮ ਵਿਚ ਗ਼ੁਲਾਮਾਂ, ਜੰਗੀ ਕੈਦੀਆਂ ਜਾਂ ਸਜ਼ਾਯਾਫ਼ਤਾ ਮੁਜਰਮਾਂ ਨੂੰ ਰਾਜੇ ਦੇ ਦਰਬਾਰ ਵਿਚ ਆਪਸ ਵਿਚ ਜਾਨਲੇਵਾ ਤਲਵਾਰਬਾਜ਼ੀ ਕਰਨ ਦੀ ਬਹੁਤ ਸਖ਼ਤ ਕਿਸਮ ਦੀ ਸਿਖਲਾਈ ਦਿੱਤੀ ਜਾਂਦੀ ਸੀ। ਰਾਜਾ ਕਈ ਵਾਰ ਮਜ਼ੇ ਖ਼ਾਤਰ ਗ਼ੁਲਾਮਾਂ ਨੂੰ ਭੁੱਖੇ ਸ਼ੇਰਾਂ ਅੱਗੇ ਛੱਡ ਦਿੰਦਾ ਸੀ। ਗਲੈਡੀਏਟਰ ਲਾਤੀਨੀ ਬੋਲੀ ਦਾ ਸ਼ਬਦ ਹੈ ਤੇ ਇਸ ਦਾ ਅਰਥ ਹੈ: ਤਲਵਾਰਬਾਜ਼। ਪਾਪੀਆਂ ਨੇ ਤੁਹਾਡੇ ਗਿਆਨ ਦੀਆਂ ਪੋਥੀਆਂ ਵੇਦਾਂ ਦੀਆਂ ਕੁਝ ਸਤਰਾਂ ਅਪਣੇ ਕੰਨੀ ਸੁਣ ਲਈਆਂ ਸਨ ਅਤੇ ਤੁਸੀਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਕੰਨਾਂ ਵਿਚ ਸਿੱਕਾ ਢਾਲ਼ ਕੇ ਪਾ ਦਿੱਤਾ ਸੀ, ਜੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਕੋਈ ਕਸੂਰ ਕੀਤਾ ਸੀ ਤਾਂ ਇਸਦਾ ਜ਼ਿੰਮੇਵਾਰ ਕੌਣ ਸੀ ਤੇ ਬਿਪਤਾ ਕਿਸ ਦੇ ਸਿਰ ਪੈਣੀ ਸੀ? ਮੇਰੇ ਪਿਆਰੇ ਦੋਸਤੋ, ਇਹ ਸਾਰੇ ਸਿਧਾਂਤ ਖ਼ਾਸ ਅਧਿਕਾਰਾਂ ਦੇ ਮਾਲਕਾਂ ਦੀਆਂ ਕਾਢਾਂ ਹੀ ਹਨ, ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਿਧਾਂਤਾਂ ਸਦਕਾ ਹੀ ਉਹ ਅਪਣੀ ਲੁੱਟੀ ਹੋਈ ਤਾਕਤ ਦੌਲਤ ਤੇ ਉੱਤਮਤਾ ਨੂੰ ਵਾਜਿਬ ਠਹਿਰਾਉਂਦੇ ਹਨ। ਹਾਂ ਸ਼ਾਇਦ ਅਪਟਨ ਸਿਨਕਲੇਅਰ ਨੇ ਕਿਸੇ ਥਾਂ ਲਿਖਿਆ ਸੀ ਕਿ ਬੰਦੇ ਨੂੰ (ਆਤਮਾ ਦੀ) ਅਮਰਤਾ ਵਿਚ ਯਕੀਨ ਕਰਨ ਲਾ ਦਿਓ ਅਤੇ ਫੇਰ ਉਹਦੇ ਕੋਲ਼ ਜੋ ਕੁਝ ਵੀ ਹੈ, ਉਹ ਲੁੱਟ ਲਓ। ਉਹ ਸਗੋਂ ਹੱਸ ਕੇ ਤੁਹਾਡੀ ਮਦਦ ਕਰੇਗਾ। ਧਾਰਮਿਕ ਉਪਦੇਸ਼ਕਾਂ ਤੇ ਹੁਕਮਰਾਨਾਂ ਨੇ ਮਿਲੀਭੁਗਤ ਕਰਕੇ ਜੇਲਾਂ, ਫਾਹੀਆਂ, ਕੋਰੜੇ ਤੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਿਧਾਂਤਾਂ ਦੀ ਕਾਢ ਕੱਢੀ ਸੀ।
ਮੈਨੂੰ ਇਹ ਦੱਸੋ ਕਿ ਤੁਹਾਡਾ ਸਰਬਸ਼ਕਤੀਮਾਨ ਰੱਬ ਹਰ ਕਿਸੇ ਬੰਦੇ ਨੂੰ ਕਸੂਰ ਜਾਂ ਪਾਪ ਕਰਨੋਂ ਵਰਜਦਾ ਕਿਉਂ ਨਹੀਂ? ਉਹਦੇ ਲਈ ਤਾਂ ਇਹ ਕੰਮ ਬਹੁਤ ਸੌਖਾ ਹੈ। ਉਹਨੇ ਜੰਗਬਾਜ਼ਾਂ ਨੂੰ ਕਿਉਂ ਨਾ ਜਾਨੋਂ ਮਾਰਿਆ ਜਾਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਜੰਗੀ ਪਾਗਲਪਣ ਨੂੰ ਮਾਰ ਕੇ ਵੱਡੀ ਜੰਗ ਨਾਲ਼ ਮਨੁੱਖਤਾ ਉੱਤੇ ਆਈ ਪਰਲੋ ਨੂੰ ਕਿਉਂ ਨਾ ਬਚਾਇਆ? ਉਹ ਅੰਗਰੇਜ਼ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਮਨਾਂ ਵਿਚ ਕੋਈ ਅਜਿਹਾ ਜਜ਼ਬਾ ਕਿਉਂ ਨਹੀਂ ਭਰ ਦਿੰਦਾ ਕਿ ਉਹ ਹਿੰਦੋਸਤਾਨ ਛੱਡ ਕੇ ਚਲੇ ਜਾਣ? ਉਹ ਸਾਰੇ ਸਰਮਾਏਦਾਰਾਂ ਦੇ ਮਨਾਂ ਵਿਚ ਇਹ ਜਜ਼ਬਾ ਕਿਉਂ ਨਹੀਂ ਭਰ ਦਿੰਦਾ ਕਿ ਉਹ ਪੈਦਾਵਾਰੀ ਸਾਧਨਾਂ ਦੀ ਸਾਰੀ ਜਾਇਦਾਦ ਛੱਡ ਦੇਣ ਤੇ ਸਾਰੇ ਮਿਹਨਤਕਸ਼ ਤਬਕੇ ਨੂੰ ਹੀ ਨਹੀਂ, ਸਗੋਂ ਸਾਰੇ ਮਨੁੱਖੀ ਸਮਾਜ ਨੂੰ ਪੂੰਜੀਵਾਦ ਦੇ ਬੰਧਨ ਤੋਂ ਮੁਕਤ ਕਰ ਦੇਣ। ਤੁਸੀਂ ਬਹਿਸ ਕਰਨੀ ਚਾਹੋਗੇ ਕੀ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਸਿਧਾਂਤ ਲਾਗੂ ਹੋ ਸਕਦਾ ਹੈ ਜਾਂ ਨਹੀਂ? ਮੈਂ ਇਹਨੂੰ ਲਾਗੂ ਕਰਨ ਦਾ ਜ਼ਿੰਮਾ ਤੁਹਾਡੇ ਪਰਵਰਦਿਗਾਰ ਉੱਤੇ ਸੁੱਟਦਾ ਹਾਂ। ਜਿੱਥੋਂ ਤਕ ਆਮ ਲੋਕ ਭਲਾਈ ਦਾ ਸੰਬੰਧ ਹੈ, ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਸਮਾਜਵਾਦ ਦੇ ਗੁਣਾਂ ਦਾ ਪਤਾ ਹੈ। ਉਹ ਇਹਦਾ ਵਿਰੋਧ ਇਸ ਨੁਕਤੇ ਤੋਂ ਕਰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਇਹ ਲਾਗੂ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦਾ। ਚਲੋ, ਤੁਹਾਡਾ ਰੱਬ ਆਵੇ ਤੇ ਸਭ ਕੁਝ ਬਾਕਾਇਦਾ ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ਼ ਕਰ ਦੇਵੇ। ਹੁਣ ਤੁਸੀਂ ਦਲੀਲ ਵਿੱਚੋਂ ਦਲੀਲ ਕੱਢਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਨਾ ਕਰਨੀ। ਮੈਂ ਤੁਹਾਨੂੰ ਦੱਸਦਾ ਹਾਂ: ਹਿੰਦੋਸਤਾਨ ਉੱਤੇ ਜੇ ਬਰਤਾਨਵੀ ਹਕੂਮਤ ਹੈ, ਤਾਂ ਇਹ ਰੱਬ ਦੀ ਮਰਜ਼ੀ ਕਾਰਣ ਨਹੀਂ ਹੈ; ਸਗੋਂ ਇਸ ਕਾਰਣ ਹੈ ਕਿ ਸਾਡੇ ਵਿਚ ਇਸ ਦਾ ਵਿਰੋਧ ਕਰਨ ਦੀ ਹਿੰਮਤ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਉਹ ਰੱਬ ਦੀ ਮਦਦ ਨਾਲ਼ ਸਾਨੂੰ ਗ਼ੁਲਾਮ ਨਹੀਂ ਰੱਖ ਰਹੇ; ਸਗੋਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਬੰਦੂਕਾਂ, ਤੋਪਾਂ, ਬੰਬਾਂ, ਗੋਲ਼ੀਆਂ, ਪੁਲਿਸ, ਫ਼ੌਜ ਦੀ ਮਦਦ ਨਾਲ਼ ਸਾਨੂੰ ਗ਼ੁਲਾਮ ਬਣਾਇਆ ਹੋਇਆ ਹੈ ਅਤੇ ਸਾਡਾ ਕਸੂਰ ਕੀ ਹੈ ਕਿ ਉਹ (ਮਨੁੱਖੀ) ਸਮਾਜ ਵਿਰੁੱਧ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਧ ਘਿਣਾਉਣਾ ਗੁਨਾਹ ਇਹ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ ਕਿ ਇਕ ਕੌਮ ਹੱਥੋਂ ਦੂਜੀ ਕੌਮ ਲੁੱਟੀ ਜਾ ਰਹੀ ਹੈ। ਕਿੱਥੇ ਹੈ ਰੱਬ? ਉਹ ਕੀ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹੈ? ਕੀ ਉਹ ਮਨੁੱਖਤਾ ਦੀਆਂ ਇੰਨ੍ਹਾਂ ਸਾਰੀਆਂ ਦੁੱਖ ਤਕਲੀਫ਼ਾਂ ਦਾ ਮਜ਼ਾ ਲੈ ਰਿਹਾ ਹੈ? ਉਹ ਨੀਰੋ ਹੈ, ਉਹ ਚੰਗੇਜ਼ ਖਾਂ ਹੈ। ਰੱਬ ਮੁਰਦਾਬਾਦ!
ਤੁਸੀਂ ਮੈਨੂੰ ਇਹ ਪੁੱਛੋਗੇ ਕਿ ਇਸ ਦੁਨੀਆ ਦਾ ਤੇ ਮਨੁੱਖ ਦਾ ਆਰੰਭ ਕਿਵੇਂ ਹੋਇਆ ਸੀ? ਚਾਰਲਸ ਡਾਰਵਿਨ ਨੇ ਇਹ ਦਸਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕੀਤੀ ਹੈ। ਉਹਦਾ ਮੁਤਾਲਿਆ ਕਰੋ। ਸੋਹੰਮ ਸਵਾਮੀ ਦੀ ਕਿਤਾਬ ਕਾਮਨਸੈਂਸ (ਆਮ ਸਮਝਬੂਝ) ਪੜ੍ਹੋ। ਤੁਹਾਨੂੰ ਇਸ ਸਵਾਲ ਦਾ ਕੁਝ ਹੱਦ ਤਕ ਜਵਾਬ ਮਿਲ ਜਾਏਗਾ। ਇਹ ਕੁਦਰਤ ਦਾ ਵਿਸ਼ਾ ਹੈ। ਵੱਖ-ਵੱਖ ਪਦਾਰਥਾਂ ਦੇ ਇਤਫ਼ਾਕੀਆ ਮੇਲ਼ ਨਾਲ਼ ਧਰਤੀ ਨੇਬੂਲੇ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਪੈਦਾ ਹੋਈ ਸੀ। ਕਦੋਂ? ਇਹ ਜਾਨਣ ਲਈ ਇਤਿਹਾਸ ਪੜ੍ਹੋ। ਇਸ ਅਮਲ ਵਿਚ ਜਾਨਵਰ ਤੇ ਫੇਰ ਅਖ਼ੀਰ ਵਿਚ ਮਨੁੱਖ ਪੈਦਾ ਹੋਇਆ ਸੀ। ਤੁਸੀਂ ਡਾਰਵਿਨ ਦੀ ਕਿਤਾਬ ਓਰਿਜਨ ਆੱਵ ਸਪੀਸੀਜ਼ ਪੜ੍ਹੋ ਅਤੇ ਉਸਤੋਂ ਮਗਰੋਂ ਜੋ ਵੀ ਉੱਨਤੀ ਹੋਈ, ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਦੀ ਕੁਦਰਤ ਨਾਲ਼ ਲਗਾਤਾਰ ਟੱਕਰ ਤੇ ਮਨੁੱਖ ਦੀ ਕੁਦਰਤ ਉੱਤੇ ਕਾਬੂ ਪਾਉਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਸਦਕਾ ਹੋਈ ਸੀ। ਧਰਤੀ ਦੇ ਆਦਿ ਬਾਰੇ ਇਹ ਸਭ ਤੋਂ ਸੰਖੇਪ ਜਿਹਾ ਵੇਰਵਾ ਹੈ।
ਤੁਹਾਡਾ ਅਗਲਾ ਸਵਾਲ ਇਹ ਹੋ ਸਕਦਾ ਹੈ ਕਿ ਪਿਛਲੇ ਜਨਮ ਵਿਚ ਮਾੜੇ ਕਰਮ ਨਾ ਕੀਤੇ ਹੋਣ ਤਾਂ ਬੱਚਾ ਅੰਨ੍ਹਾ ਜਾਂ ਲੰਙੜਾ ਕਿਉਂ ਜੰਮਦਾ ਹੈ? ਜੀਵ-ਵਿਗਿਆਨੀਆਂ ਨੇ ਇਸ ਸਮੱਸਿਆ ਦਾ ਜ਼ਿਕਰ ਕੀਤਾ ਹੈ ਕਿ ਇਹ ਜੀਵ-ਵਿਗਿਆਨਕ ਵਿਸ਼ਾ ਹੈ। ਇਹਦੇ ਕਾਰਣ ਬੱਚੇ ਮਾਂ ਪਿਉ ਦੇ ਜੀਵ-ਇਤਿਹਾਸ ਵਿਚ ਹੀ ਹੁੰਦੇ ਹਨ।
ਕੁਦਰਤਨ ਤੁਸੀਂ ਇਕ ਹੋਰ ਸਵਾਲ ਪੁੱਛ ਸਕਦੇ ਹੋ, ਭਾਵੇਂ ਕਿ ਇਹ ਨਿਰਾ ਬਚਗਾਨਾ ਸਵਾਲ ਹੀ ਹੈ। ਉਹ ਸਵਾਲ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਜੇ ਰੱਬ ਨਹੀਂ ਸੀ, ਤਾਂ ਫੇਰ ਲੋਕ ਉਹਨੂੰ ਮੰਨਣ ਕਿਵੇਂ ਲੱਗੇ? ਮੇਰਾ ਜਵਾਬ ਸਪੱਸ਼ਟ ਤੇ ਸੰਖੇਪ ਹੈ। ਜਿਵੇਂ ਲੋਕ ਭੂਤਾਂ ਪ੍ਰੇਤਾਂ ਨੂੰ ਮੰਨਣ ਲੱਗ ਪਏ ਸੀ, ਓਵੇਂ ਹੀ ਉਹ ਰੱਬ ਨੂੰ ਮੰਨਣ ਲੱਗ ਪਏ। ਫ਼ਰਕ ਸਿਰਫ਼ ਇੰਨਾ ਹੈ ਕਿ ਰੱਬ ਵਿਚ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਤਕਰੀਬਨ ਸਰਬਵਿਆਪਕ ਹੈ ਤੇ ਇਹਦਾ ਦਰਸ਼ਨ ਕਾਫ਼ੀ ਵਿਕਸਿਤ ਹੈ। ਕੁਝ ਪਰਿਵਰਤਨਕਾਰੀਆਂ (ਰੈਡੀਕਲਜ਼) ਵਾਂਗ ਮੇਰਾ ਇਹ ਵਿਚਾਰ ਨਹੀਂ ਹੈ ਕਿ ਰੱਬ ਦਾ ਆਦਿ ਲੁੱਟਖਸੁੱਟ ਕਰਨ ਵਾਲਿਆਂ ਦੀ ਕਰਤੂਤ ਸੀ, ਤਾਂ ਕਿ ਉਹ ਸਰਬਉੱਚ ਸੱਤਾ ਦੀ ਹੋਂਦ ਦਾ ਪ੍ਰਚਾਰ ਕਰਕੇ ਅਪਣੀਆਂ ਗੱਦੀਆਂ ਕਾਇਮ ਰੱਖਣ ਲਈ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਗ਼ੁਲਾਮ ਰਖ ਸਕਣ। ਭਾਵੇਂ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨਾਲ਼ ਇਸ ਜ਼ਰੂਰੀ ਨੁਕਤੇ ਨਾਲ਼ ਮੇਰਾ ਕੋਈ ਮੱਤਭੇਦ ਨਹੀਂ ਹੈ ਕਿ ਸਾਰੇ ਧਾਰਮਿਕ ਮੱਤ, ਧਰਮ, ਸਿਧਾਂਤ ਤੇ ਹੋਰ ਇਹੋ ਜਿਹੀਆਂ *ਅਪਟਨ ਸਿਨਕਲੇਅਰ (1878-1968) ਅਮਰੀਕੀ ਲੇਖਕ ਤੇ ਸੋਸ਼ਲਿਸਟ ਪਾਰਟੀ ਦਾ ਕਾਰਕੁੰਨ। ਭਗਤ ਸਿੰਘ ਦਾ ਇਸ਼ਾਰਾ ਸ਼ਾਇਦ ਸਿਨਕਲੇਅਰ 1918 ਵਿਚ ਲਿਖੇ ਪੈਂਫ਼ਲਟ ਪਰੌਫ਼ਿਟਸ ਆੱਵ ਰਿਲੀਜਨ (ਧਰਮ ਦੇ ਮੁਨਾਫ਼ੇ) ਵਲ ਹੈ। * ਚਾਰਲਸ ਡਾਰਵਿਨ (1809-1882) ਅੰਗਰੇਜ਼ ਪ੍ਰਕ੍ਰਿਤਵਾਦੀ। ਉਨ੍ਹੀਵੀਂ ਸਦੀ ਦੀ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਡੀ ਜਿੱਤ ਉਸਦੀ 1859 ਵਿਚ ਛਪੀ ਓਰਿਜਨ ਆੱਵ ਸਪੀਸੀਜ਼ ਸੀ, ਜਿਸ ਵਿਚ ਪ੍ਰਕ੍ਰਿਤੀ ਦੇ ਵਿਕਾਸ ਦਾ ਸਿਧਾਂਤ ਸੀ। ਇਸ ਸਿਧਾਂਤ ਨੇ ਕੁਦਰਤ ਸੰਬੰਧੀ ਧਾਰਮਿਕ ਤੇ ਵਿਚਾਰਵਾਦੀ ਸੰਬੋਧ ਤੋੜ ਦਿੱਤੇ। ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਆਖ਼ਿਰਕਾਰ ਜਾਬਰ, ਦਮਨਕਾਰੀ ਸੰਸਥਾਵਾਂ, ਵਿਅਕਤੀਆਂ ਦੀਆਂ ਜਮਾਤਾਂ ਦੀਆਂ ਹਮਾਇਤੀ ਹੀ ਹੋ ਨਿਬੜੀਆਂ ਹਨ। ਹਰ ਧਰਮ ਇਹ ਕਹਿੰਦਾ ਹੈ ਕਿ ਬਾਦਸ਼ਾਹ ਵਿਰੁੱਧ ਬਗ਼ਾਵਤ ਕਰਨਾ ਹਮੇਸ਼ਾ ਹੀ ਪਾਪ ਹੁੰਦਾ ਹੈ।
ਰੱਬ ਦੇ ਆਦਿ ਬਾਰੇ ਮੇਰਾ ਅਪਣਾ ਵਿਚਾਰ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਜਦ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਅਪਣੀਆਂ ਸੀਮਾਵਾਂ ਕਮਜ਼ੋਰੀਆਂ ਤੇ ਕਮੀਆਂ ਦਾ ਅਹਿਸਾਸ ਹੋ ਗਿਆ ਹੈ, ਤਾਂ ਉਹਨੇ ਰੱਬ ਦੀ ਕਾਲਪਨਿਕ ਹੋਂਦ ਬਣਾ ਲਈ, ਤਾਂ ਕਿ ਇਮਤਿਹਾਨੀ ਹਾਲਤ ਦਾ ਦ੍ਰਿੜ੍ਹਤਾ ਨਾਲ਼ ਸਾਹਮਣਾ ਕਰਨ ਲਈ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਹੌਂਸਲਾ ਮਿਲੇ, ਤਾਂ ਕਿ ਸਾਰੇ ਖ਼ਤਰਿਆਂ ਦਾ ਜਵਾਂਮਰਦੀ ਨਾਲ਼ ਮੁਕਾਬਿਲਾ ਕਰ ਸਕੇ ਅਤੇ ਖ਼ੁਸ਼ਹਾਲੀ ਤੇ ਅਮੀਰੀ ਦੀ ਹਾਲਤ ਵਿਚ ਅਪਣੀਆਂ ਇੱਛਾਵਾਂ 'ਤੇ ਕਾਬੂ ਪਾ ਸਕੇ। ਮਨੁੱਖ ਨੇ ਰੱਬ ਨੂੰ ਇਹਦੇ ਨਿਜਪੂਰਕ ਨੇਮਾਂ ਤੇ ਪਾਲਣਹਾਰ ਗੁਣਾਂ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਚਿਤਵਿਆ ਸੀ ਤੇ ਚਿਤਰਿਆ ਸੀ। ਉਹਦੀ ਕਰੋਪੀ ਤੇ ਨਿਜਰੂਪਕ ਨੇਮਾਂ ਨੂੰ ਵਿਚਾਰਨ ਵੇਲੇ ਉਹ ਤਾੜਨਾ ਦਾ ਕੰਮ ਦਿੰਦਾ ਸੀ ਤਾਂ ਕਿ ਮਨੁੱਖ ਸਮਾਜ ਵਾਸਤੇ ਖ਼ਤਰਾ ਨਾ ਬਣ ਜਾਵੇ। ਉਹਦੇ ਪਾਲਣਹਾਰ ਗੁਣਾਂ ਵਿਚ ਉਹ ਮਾਂ, ਪਿਤਾ, ਭੈਣ, ਭਾਈ, ਦੋਸਤ ਤੇ ਮਦਦਗਾਰ ਸੀ; ਤਾਂ ਕਿ ਉਸ ਹਾਲਤ ਵਿਚ ਜਦ ਬੰਦੇ ਨੂੰ ਔਖੇ ਵੇਲੇ ਹਰ ਕੋਈ ਛੱਡ ਜਾਵੇ, ਤਾਂ ਉਸ ਘੜੀ ਵੀ ਬੰਦੇ ਨੂੰ ਇਹ ਧਰਵਾਸ ਰਹੇ ਕਿ ਉਹਦੀ ਮਦਦ ਕਰਨ ਲਈ ਉਹਨੂੰ ਢਾਰਸ ਦੇਣ ਲਈ ਸਦਾ ਸਲਾਮਤ ਰਹਿਣ ਵਾਲ਼ਾ ਸੱਚਾ ਮਿਤਰ ਰੱਬ ਹੈ। ਆਦਿਕਾਲ ਵਿਚ ਰੱਬ ਸੱਚੇ ਅਰਥਾਂ ਵਿਚ ਸਮਾਜ ਲਈ ਲਾਹੇਵੰਦ ਸੀ। ਔਖੀ ਘੜੀ ਵੇਲੇ ਰੱਬ ਦਾ ਵਿਚਾਰ ਬੰਦੇ ਲਈ ਮਦਦਗਾਰ ਹੁੰਦਾ ਹੈ।
ਸਮਾਜ ਨੇ ਜਿਵੇਂ ਬੁੱਤਪੂਜਾ ਤੇ ਧਰਮ ਦੇ ਤੰਗਨਜ਼ਰ ਸੰਬੋਧ ਵਿਰੁੱਧ ਲੜਾਈ ਲੜੀ ਸੀ, ਉਸੇ ਤਰਾਂ ਸਮਾਜ ਨੂੰ ਰੱਬ ਦੇ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਵਿਰੁੱਧ ਲੜਨਾ ਪੈਣਾ ਹੈ। ਇਸੇ ਤਰਾਂ ਬੰਦਾ ਜਦ ਅਪਣੇ ਪੈਰੀਂ ਹੋਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਨ ਲੱਗਾ ਤੇ ਯਥਾਰਥਵਾਦੀ ਹੋਣ ਲੱਗਾ ਤਾਂ ਉਹਨੂੰ ਰੱਬ ਦਾ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਲਾਂਭੇ ਸੁੱਟਣਾ ਪਏਗਾ ਅਤੇ ਹਰ ਮੁਸ਼ਕਿਲ, ਹਰ ਆਫ਼ਤ ਤੇ ਹਰ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੀ ਹਾਲਤ ਦਾ ਡਟ ਕੇ ਮੁਕਾਬਲਾ ਕਰਨਾ ਪਏਗਾ। ਇਸ ਵੇਲੇ ਮੇਰੀ ਹਾਲਤ ਬਿਲਕੁਲ ਇਹੀ ਹੈ। ਮੇਰੇ ਦੋਸਤੋ, ਮੇਰਾ ਇਹ ਕੋਈ ਅਹੰਕਾਰ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਮੈਂ ਅਪਣੀ ਸੋਚਣ ਵਿਧੀ ਨਾਲ਼ ਹੀ ਨਾਸਤਿਕ ਬਣਿਆ ਹਾਂ। ਮੇਰਾ ਖ਼ਿਆਲ ਨਹੀਂ ਕਿ ਰੱਬ ਵਿਚ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਕਰਨ ਨਾਲ਼ ਤੇ ਹਰ ਰੋਜ਼ ਅਰਦਾਸ ਕਰਨ ਨਾਲ਼ (ਜਿਹੜਾ ਕਿ ਮੈਂ ਮਨੁੱਖ ਦਾ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਧ ਖ਼ੁਦਗ਼ਰਜ਼ੀ ਕਰਨ ਵਾਲ਼ਾ ਤੇ ਘਟੀਆ ਕੰਮ ਸਮਝਦਾ ਹਾਂ) ਮੇਰਾ ਕੁਝ ਸੌਰ ਸਕਦਾ ਹੈ ਜਾਂ ਇਹਦੇ ਨਾਲ਼ ਮੇਰੀ ਹਾਲਤ ਹੋਰ ਵੀ ਭੈੜੀ ਹੋ ਜਾਵੇਗੀ। ਮੈਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨਾਸਤਿਕਾਂ ਬਾਰੇ ਪੜ੍ਹਿਆ ਹੈ, ਜਿੰਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਬਹੁਤ ਡਟ ਕੇ ਸਾਰੀਆਂ ਮੁਸ਼ਕਿਲਾਂ ਦਾ ਮੁਕਾਬਲਾ ਕੀਤਾ ਸੀ। ਇਸੇ ਲਈ ਮੈਂ ਅਖ਼ੀਰ ਤਕ ਫਾਂਸੀ ਦੇ ਤਖ਼ਤੇ 'ਤੇ ਵੀ ਮਰਦ ਵਾਂਗ ਸਿਰ ਤਾਣ ਕੇ ਸਾਬਤਕਦਮ ਰਹਿਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹਾਂ।
ਦੇਖੀਏ ਮੈਂ ਇਸ ਤੇ ਕਿੰਨਾ ਕੁ ਪੂਰਾ ਉੱਤਰਦਾ ਹਾਂ। ਮੇਰੇ ਕਿਸੇ ਦੋਸਤ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਅਰਦਾਸ ਕਰਨ ਲਈ ਕਿਹਾ ਸੀ। ਜਦ ਮੈਂ ਉਹਨੂੰ ਦੱਸਿਆ ਕਿ ਮੈਂ ਤਾਂ ਨਾਸਤਿਕ ਹਾਂ, ਤਾਂ ਉਹ ਕਹਿਣ ਲੱਗਿਆ, ''ਦੇਖੀਂ ਅਪਣੇ ਅਖ਼ੀਰੀ ਦਿਨਾਂ 'ਚ ਰੱਬ ਨੂੰ ਮੰਨਣ ਲੱਗ ਜਾਏਂਗਾ।" ਮੈਂ ਅੱਗੋਂ ਕਿਹਾ, "ਨਹੀਂ ਪਿਆਰੇ ਜਨਾਬ ਜੀ, ਇਸ ਤਰਾਂ ਹਰਗ਼ਿਜ਼ ਨਹੀਂ ਹੋਣ ਲੱਗਾ। ਇੰਜ ਕਰਨਾ ਮੇਰੇ ਲਈ ਬੜੀ ਘਟੀਆ ਤੇ ਪਸਤੀ ਵਾਲੀ ਗੱਲ ਹੋਵੇਗੀ। ਖ਼ੁਦਗ਼ਰਜ਼ੀ ਵਾਸਤੇ ਮੈਂ ਅਰਦਾਸ ਨਹੀਂ ਕਰਨੀ।" ਪਾਠਕੋ ਤੇ ਦੋਸਤੋ, ਕੀ ਇਹ ਹਉਮੈ ਹੈ। ਜੇ ਹੈ, ਤਾਂ ਮੈਨੂੰ ਹਉਮੈ ਚੰਗੀ ਲਗਦੀ ਹੈ।
[ਅਮਰਜੀਤ ਚੰਦਨ ਨੇ ਲਹੌਰੋਂ ਛਪਦੇ ਪੀਪਲ (27 ਸਤੰਬਰ 1931) ਵਿੱਚੋਂ ਮੂਲ ਅੰਗਰੇਜ਼ੀ ਦਾ ਇਹ ਲੇਖ ਲਭ ਕੇ ਇਹਦਾ ਪੰਜਾਬੀ ਉਲਥਾ ਸੰਨ 1979 ਵਿਚ ਕੀਤਾ ਸੀ। ਮੁੜ ਸੋਧਿਆ 2005 ਵਿਚ।]
Subscribe to:
Posts (Atom)